ह्वेन त्सांग द्वारा कही आड़ू और नाशपातियों की कहानी: चीन-भारत सांस्कृतिक विनिमय पर एक अलग दृष्टिकोण

चीन और भारत के बीच के सांस्कृतिक विनिमय में हमेशा आध्यात्मिक और सांसारिक क्षेत्र शामिल रहा है।
by वांग बांगवेई
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25 जनवरी, 2019: अमेरिका में जॉन एफ़ केनेडी सेंटर फ़ॉर परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स में चीनी म्यूज़िकल ड्रामा ‘ह्वेन त्सांग की तीर्थयात्रा’ का मंचन होते हुए। (चाइना न्यूज़ सर्विस)

ह्वेन त्सांग द्वारा भारत में की गयी उनकी तीर्थयात्रा पर आधारित लिखी गयी एक जानीमानी किताब, द ग्रेट टांग डाइनस्ट रिकॉर्ड ऑन वेस्टर्न रीजंस का चौथा खंड, भारत में "सिनभुक्ति" नाम की एक जगह के जिक्र करते हैं:

सिनभुक्ति देश दो हजार चीनी मील से बड़ा है, और इसकी राजधानी पंद्रह या चौदह चीनी मील के इलाके में है। यह अनाजों के मामले में समृद्ध है लेकिन फलों की कमी है। यहां के निवासी घरेलू पंजीकरण से जुड़े हैं और शांति और संतुष्टि से जी रहे हैं। राज्य के खजाने में समृद्ध और प्रचुर मात्रा में संसाधन है।

मौसम समशीतोष्ण और गर्म है, और लोग व्यवहार में संकोचशील और सौम्य हैं। उन लोगों ने विस्तृत रूप से लोकोत्तर और पारम्परिक सच्चाई दोनों के सिद्धांतों का अध्ययन किया और विधर्म के साथ-साथ रूढ़िवादिता में भरोसा किया। वहां दस मठ (बुद्धिस्ट) और आठ देव मंदिर हैं।

आज सिनभुक्ति की जगह के बारे में सटीक नहीं पता है। द ग्रेट थांग डाइनस्ट रिकॉर्ड ऑन वेस्टर्न रीजंस और ह्वेन त्सांग की जीवनी, द लाइफ ऑफ़ त्रिपिटका मास्टर ह्वेन त्सांग ऑफ़ द ग्रेट सी एन टेम्पल, बहुत संभव है कि सिनभुक्ति आज के भारत के उत्तर-पश्चिमी पंजाब में रहा होगा। हालांकि, यहां हमारी दिलचस्पी उसके भौगोलिक स्थिति को लेकर नहीं है बल्कि उसके नाम में है। "सिनभुक्ति" के हिस्से का पहला नाम सीन है, जो बहुत प्राचीन दौर में चीन के संबोधन के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला एक संस्कृत शब्द है। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि प्राचीन भारत में एक छोटे देश के नाम में "सीन" था जिसका अर्थ "चीन" है। क्या इसका कोई संबंध चीन से रहा होगा? अपने किताब में ह्वेन त्सांग ने इसके बारे में स्पष्टीकरण दिया है:

जब राजा कनिष्क ने सिंहासन संभाला, उनकी कीर्ति पड़ोसी देशों में भी पहुंच गयी, और उनकी प्रतिष्ठा अलग रिवाजों के साथ दूर के देशों में भी फ़ैल गई। उनके प्रभाव से घबराकर, पीली नदी के एक पश्चिमी किनारे के राज्य ने एक राजकुमार को बंदी बनाकर उनके पास भेजा। राजा कनिष्क ने राजकुमार का उदारतापूर्वक आथित्य किया, उन्हें साल के तीन मौसमों के लिए तीन निवासस्थान दिए और चार विभागों के सैनिकों को उनकी रक्षा के लिए तैनात किया। शीतकाल के लिए चीनी राजकुमार को दिया गया घर एक जिले में था जिसका नाम सिनभुक्ति (हांफेंग के नाम से जानते हैं, "हानस या चीनी जागीर, चीनी में), इस तरह उन्हें आवंटित किये गए यह उस जगह का नाम बन गया।

द ग्रेट थांग डायनेस्टी रिकॉर्ड ऑन द वेस्टर्न रीजंस के दूसरे भाग में ह्वेन त्सांग ने इस कहानी का उल्लेख किया है: "राजा कनिष्क ने बंदी राजकुमार के साथ विशेष दयालुता और शालीनता का व्यवहार किया और मौसम के अनुसार उन्हें अलग-अलग घर दिए। सर्दियों में, वे भारत के कई राज्यों में रहे, ग्रीष्मकाल में वे कपीसी देश लौट आये और वसंत और पतझड़ में वे गांधरा देश में रहे।" सिनभुक्ति संभवतः भारत में पहली जगह थी जहां बंदी में शीतकाल रहा।

ह्वेन त्सांग स्पष्ट किया कि चीनी में "सिनभुक्ति" का अर्थ "हांफेंग" (हन्स या चीनी जागीर) है। "सिनभुक्ति" शब्द "सीन", संस्कृत में "चीन" और "भुक्ति" का अर्थ "जागीर" का जोड़ है। एक साथ, "सिनभुक्ति" का अर्थ संस्कृत में "चीन की जागीर" है। नाम के बावजूद, संभवतः आज के चीन के शिनजियांग इलाके से हों। उम्मीद कम है कि बंदी राजकुमार हान प्रजाति समुदाय आये थे। ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय लोगों का मानना था कि वह साइना, या महासाइना यानि बृहत् चीन का हिस्सा था इसलिए उसे चीनी राजकुमार सम्बोधित किया। 

हालांकि, सिर्फ सिनभुक्ति का नाम ही चीन से नहीं निकल कर आया, बल्कि वहां कुछ और बातें जमीन से संबंधित थी। ह्वेन त्सांग ने जारी रखा:

यह जिला, और इसके बाहर भारत के दूसरे हिस्सों में, पहले नाशपत्ती और आड़ू के पेड़ नहीं लगाए गए थे। पहली बार बंदी ने उनका रोपण किया। इस प्रकार, आड़ू को सिननी (चीन से लाया गया) कहा गया, और नाशपत्ती को सिनराजपुत्र (चीनी राजकुमार) कहा जाता है। इसलिए, इस देश के लोगों में पूर्व से यानि चीन से आये लोगों के प्रति बहुत सम्मान है। एक ने दूसरे से कहा: "यह आदमी हमारे भूतपूर्व राजा के देश से है।"

संस्कृत शब्द "सिननी" दो भागों से बना है: सीन (जिसका अर्थ चीन है) और नी (इसका अर्थ है "लाना", "से लाना" या "से आनेवाला")। जब दोनों हिस्सों को एक साथ रखते हैं, शब्द का मतलब है "लाना" या "चीन से लाया जा रहा है।"संस्कृत शब्द "सिनराजपुत्र" तीन खंडों से बना है: सीन (जिसका अर्थ चीन), राजा (जिसका अर्थ सम्राट) और पुत्र (जिसका अर्थ बेटा), तो इस पूरे शब्द का अर्थ "चीनी राजकुमार" है जैसा ह्वेन त्सांग ने भी भाषांतरित किया था।

इस बात से आधुनिक वनस्पतिशास्त्री सहमत हैं कि आड़ू और नाशपत्ती मूल रूप से चीन से हैं। यद्यपि चीन से आया बंदी राजकुमार पहला व्यक्ति था जिसने भारत में आड़ू और नाशपत्ती लगाए, इस उस कहानी पर और चर्चा की ज़रूरत है, लेकिन यह माना जा रहा है कि निश्चित ही दोनों फलों की प्रजातियां भारत में चीन से लाई गयी हैं। पूरे इतिहास में ह्वेन त्सांग एकलौते व्यक्ति थे जिन्होंने इस कहानी को दर्ज किया, और उनके पास इस बारे में बनावटी जानकारी देने का शायद ही कोई कारण रहा हो।

वास्तव में, सिर्फ आड़ू और नाशपत्ती ही नहीं, भारत में कुछ और भी चीज़ें चीन से संबंधित हैं। रेशम इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। हजारों साल पहले रेशम उत्पादन और रेशम की खोज चीनी लोगों की महत्वपूर्ण खोज है। प्राचीन काल में, चीन रेशम का बहुत बड़ा उत्पादक बन गया था। प्राचीन रोम में, चीन को रेशम का पर्यायवाची मानते थे। संस्कृत शब्द "सिनपट्टा" का अर्थ चीन से आया रेशम है।

प्राचीन भारत की शासन कला पर लिखी गयी संस्कृत पुस्तक 'अर्थशास्त्र' में एक परिच्छेद के अनुसार: "कौसिएम सिनपट्टा स सिनभूमिजः" (चीन से कौसेया और रेशम के पुलिंदे)। जैसा कि ह्वेन त्सांग ने द ग्रेट थांग डायनेस्टी रिकॉर्ड ऑन द वेस्टर्न रीजंस के दूसरे खंड में समझाया है कि, कौसेया का अर्थ जंगली रेशम के कीड़े से बुने हुए रेशम से है। स्पष्ट रूप से, सपट्टा कौसेया से अलग दूसरे किस्म का रेशम है। क्या अंतर है? संस्कृत में, सिनपट्टा का अर्थ घरेलू रेशम के कीड़ों से बुने रेशम है। अर्थशास्त्र में एक वाक्य स्पष्ट रूप से यह बताता है कि इस तरह का रेशम चीन से आया है। (संस्कृत में "सिनभूमिज") ।

भारत के उत्तराखंड के एक बाज़ार में बिकते हुए आड़ू। (आईसी)

अर्थशास्त्र कब लिखा गया था यह तर्कनीय है। तथापि, किताब के लंबे इतिहास पर कोई विवाद नहीं है। विद्वानों में आम सहमति है कि यह किताब चौथी शताब्दी ईसापूर्व की है, जो चीन के वसंत और पतझड़ दौर और वाररिंग स्टेट्स पीरियड के समान है। यह दर्शाता है कि चीनी रेशम भारत में प्राचीन रोम से पहले लाया गया। "रेशम का पुलिंदा" का विवरण यह बताता है कि चीनी रेशम जिसे आज रेशम मार्ग कहा जाता है द्वारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से भारत में आयातित होता था। 

एक और संबंधित संस्कृत शब्द, सीनसिकया, जिसका अर्थ "रेशमी कपड़े" है।

सीन के साथ हम कई और उदाहरण भी देख सकते हैं।

संस्कृत शब्द सिनजा का मतलब "स्टील", जिसमें से एक ("उच्च गुणवत्ता स्टील") है। मूलरूप से, सिनजा कर अर्थ "चीन की चीज़ें" जिसमें स्टील शामिल है। प्राचीन भारतीय स्टील को सिनजा क्यों कहते थे? क्या भारत ने चीन से स्टील का आयात किया या चीन की स्टील बनाने वाली तकनीक का उपयोग प्राचीन समय में किया? सिनजा शब्द से तात्पर्य है कि इस तरह की अटकलबाजी संभव है, कम से कम पहले विचार में।

एक अन्य संस्कृत शब्द "सिनकटिका" का तात्पर्य एक तरह की कद्दू की प्रजाति से है, लेकिन अगर वस्तुतः अनुवाद किया जाए तो, शब्द का अर्थ "चीनी खरबूज" है। जैसा की इसके नाम से स्पष्ट है, इस पौधे की प्रजाति संभवतः चीन से भारत में आई। कपूर और कपूर के पेड़ को संस्कृत में सिनकर्पूरा कहते हैं। इसका यह मतलब है कि भारत में इनका अस्तित्व भी चीन से जुड़ा हुआ है।

जो संस्कृत शब्द उनके विदेशी उद्भव को दर्शाते हैं, जैसे कि (गाजर), (टमाटर) और (अमरुद) के तरह कुछ विदेशियों को चीनी में शामिल किया गया है।

24 जून, 2019: चीन के उत्तर पश्चिमी शानशी प्रांत के शिआन में स्थित जाइंट वाइल्ड गूज़ पगोड़ा के नीचे चीनी बौद्ध साधु ह्वेन त्सांग (602-664) की मूर्ति। ईसवी 652 में, ह्वेन त्सांग की निगरानी में मंदिर का निर्माण, बौद्ध सूत्रों को इकट्ठा करने के स्थान के रूप में किया गया। ह्वेन त्सांग इन सूत्रों को भारत से रेशम मार्ग के रास्ते लेकर आए थे। (चाइना न्यूज़ सर्विस)

मिनियमिते, जिसे "लाल सिंदूर" के नाम से जानते हैं, एक खनिज है जो प्राचीन चीनी औषधि विशेष तौर पर शस्त्रक्रिया चिकित्सा में लंबे समय से एक आम औषधीय सामाग्री के तौर पर इस्तेमाल होती आ रही है। संस्कृत में, इसे सिनापिस्ट या सिनवांग कहा जाता है। यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे ये खनिज भारत में चीन से आये। कुछ विद्वानों का सुझाव था कि यह चीनी ताओसिम के रसायन विद्या व्यवहार से संबंधित हो सकती है। हालांकि, यह विवादस्पद है कि क्या ताओसिम का ऐतिहासिक रूप से भारत में कोई प्रभाव है, क्योंकि थोड़े सबूत दर्शाते हैं कि ऐसा था। लेकिन यह पूरी तरह से निर्विवाद है कि मिनियमिते के संस्कृत शब्द में उपसर्ग "सीन" है।

यह सभी संस्कृत शब्द के उदाहरण हैं जिनकी शुरुआत उपसर्ग "सीन" से है। इसका अर्थ यह है कि इनका कुछ न कुछ संबंध चीन से था या कम से कम आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि वे जुड़े हुए थे।

संस्कृत भारत की प्राचीन भाषा है। आज, भारतीय संस्कृत नहीं बोलते हैं, लेकिन अन्य कई क्षेत्रीय भाषाओं में बोलते हैं। हालांकि, क्षेत्रीय भाषाएं अब भी कई संस्कृत शब्दों का जतन करते हैं। वर्तमान में, हिंदी और बंगाली भारत में सर्वाधिक उपयोग में आनेवाली भाषाओं में से हैं। इन दोनों भाषाओं के कुछ शब्दों का चीन के साथ संबंध है। सबसे जाना माना उदाहरण "सीनी" है। व्यत्पत्तिक दृष्टिकोण से, अलग अंत ध्वनि के बावजूद सीनी और संस्कृत शब्द साइना दोनों चीन के संबंध बताते हैं। 

हिंदी और बंगाली, सीनी का अर्थ "शक्कर" भी है। यह समझने वाली बात है कि कैसे सीनी चीन की ओर उद्धृत करता है। लेकिन शक्कर का उद्भव भारत में हुआ, चीन में नहीं। ऐतिहासिक रूप से, प्राचीन भारतीय पहले थे जिन्होंने गन्ना लगाया और उसे पानी में उबाल कर शक्कर बनाने की तकनीक खोजी। यह तकनीक अंततः दुनिया के अन्य देशों में फ़ैल गयी। इसका सबूत "शक्कर" के लिए अन्य देशों की भाषाओं में उपयोग लाये गए शब्दों से होता है। संस्कृत में, शक्कर को सर्करा कहा जाता है, जिसे अंग्रेजी में "शुगर", फ्रेंच में "सुक्रे", जर्मन में "जुकर', स्पेनिश में "अज़ुकार", इटालियन में "ज़ुच्चेरो", और रसियन में "काक्सप" कहा गया। प्राचीन चीन में, सर्करा का लिप्यांतरण 煞割令” (उच्चारण "शागेलिंग") किया गया था।

थांग राजवंश के पूर्व, चीनी लोग गन्ने की खेती नहीं करते थे, उससे शक्कर बनाना तो दूर की बात है। यह बदलाव तब हुआ जब शक्कर बनाने की तकनीक थांग काल के शुरूआत में चीन में लाई गयी। चीनी ऐतिहासिक किताब सम्राट थांग के टाइजोंग ने लोगों को प्राचीन भारत राज्य के मगध में गन्ने को किस तरह निचोड़ना, उबालना और शक्कर को सुखाने की प्रक्रिया सीखने के लिए भेजा।

चीन लौटने के बाद, उन्होंने यांग्ज़्हौ से गन्ने का इस्तेमाल कर शक्कर बनाने लगे। चीन में उत्पादित शक्कर भारत की तुलना में गुणवत्ता में बेहतर थी। तब से, चीन के पास अपने दानेदार शक्कर है।

यह घटना स्पष्ट रूप से सुआनज़ांग से जुड़ी हुई है। ह्वेन त्सांग के एक समकालीन बौद्धधर्मी सन्यासी डायक्सुन ने सीक्वल टू बायोग्रफिस ऑफ़ एमिनेंट मॉन्क्स के चौथे खंड के अपनी 6 में लिखा: " ह्वेन त्सांग ने भारत के पांच हिस्सों में नाम कमाया। उन्होंने चीन के प्रमुख लोगों और चीज़ों के बारे में बातें और प्रशंसा की।

लम्बे समय तक राजा शिलादित्य और महाबोधि मंदिर के संत चीन के बारे में और जानना चाहते थे, लेकिन साम्रज्य का चीन से कोई राजनयिक रिश्ता नहीं था, इसलिए वे अपनी सुनी हुई बातों के लिए किसी भी पुख्ता नतीजे तक नहीं आ पाते थे।"

जब ह्वेन त्सांग ने भारत की यात्रा की उस वक्त शिलादित्य भारत के सबसे शक्तिशाली राजा थे, और उन्होंने अपने आप को एक बार मगध का राजा बताया था। ह्वेन त्सांग से मुलाकात के बाद, "राजा शिलादित्य ने अपने प्रतिनिधियों को मूल्यवान उपहारों और साथ ही साथ महाबोधि मंदिर के लोगों को बौद्धधर्मी लेखों के साथ चीन भेजा। इस तरह ह्वेन त्सांग की यात्रा के बाद भारत और चीन के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हुए।

राजा शिलादित्य द्वारा थांग चीन में भेजा गया सबसे पहले राजनयिक दल छांगआन पहुंचा, उसके बाद 641 में, ज़्हेंगुआन शासनकाल के 15वें साल राजधानी पहुंचा। यह घटना द न्यू थांग हिस्ट्री, द ओल्ड थांग हिस्ट्री और द सेफु युआंगी (द ऑरिजिनल आर्काइव्ज केप्ट इन द ब्यूरो) में दर्ज की गई है। तत्पश्चात, थांग के सम्राट टाइजोंग ने भारत में अपने प्रतिनिधि भेजे, और राजा शिलादित्य ने फिर से राजदूत भेजे।

तब से, चीन और भारत अक्सर पारस्परिक राजदूत भेजने लगे, जैसा कि महंत डॉक्सोएन ने वर्णित किया: भारत के राजदूत दोबारा आने के बाद, (सम्राट ने) वांग सुअंस के नेतृत्व में बतौर उपहार राजा और महंतो के लिए अलग संख्याओं में 1000 रेशम के गोले के साथ दक्षिअ (यहाँ इसका अर्थ भारत है) में एक राजनयिक अभियान के तहत 20 से अधिक दल भेजा। इस दल ने महाबोधि मंदिर से शक्कर बनाने वाले कारीगर का चुनाव किया और उन्होंने दो कारीगर और आठ महंत चीन भेजे। जब वे चीन पहुंचे, थांग सम्राट के आदेश का पालन करते हुए, गन्ने से शक्कर बनाने के यूएजहॉ गये और सफलतापूर्वक परिणाम प्राप्त किया।

महाबोधि मंदिर, वो जगह जहां बुद्ध सक्यमुनि ने ज्ञानोदीप्ति प्राप्त की, प्राचीन समय से ही बौद्धधर्म की सबसे पवित्र जगहों में से एक है। यह मंदिर भारत के मगध शासन में स्थित था। थांग राजवंश के शुरूआती समय में वांग सुअंस सबसे लोकप्रिय चीनी राजदूत थे।

सम्राट टाइजोंग से सम्राट गाओजोंग के शासनकाल तक, वे तीन बार भारत की यात्रा पर आये। महंत डॉक्सोएन ने जो अपनी किताब में लिखा है वह करीब-करीब द न्यू थांग हिस्ट्री से मिलती-जुलती है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक, भारत ने चीन में शक्कर कारीगर भेजा, और वे कारीगर और भारतीय महंत स्थानीय गन्ने से उच्च-गुणवत्ता की दानेदार शक्कर बनाने के लिए यूएजहॉ (आज का शौक्सिंग और जहेजिआंग प्रान्त का पड़ोसी इलाका) चले गए।

कई दस्तावेज साफ़ तौर पर दर्शाते हैं कि चीन की उबली हुई शक्कर बनाने की तकनीक भारत से ही आयातित की हुई थी। तो कैसे प्राचीन भारत में शक्कर के लिए शब्द, जहां उबले शक्कर बनाने की तकनीक की खोज हुई, चीन से संबंधित है? प्रश्न पेचीदा है, और आज भी कोई निश्चयजनक जवाब नहीं है। इस प्रश्न ने पेइचिंग यूनिवर्सिटी के विद्वान जी क्सीजनलिन का ध्यान खींचा। लंबे और परिश्रमी अनुसन्धान के बाद, जी ने निष्कर्ष निकला कि भारत--कम से कम कुछ क्षेत्रों या कुछ कालों में---चीन से दानेदार शक्कर और उसके उत्पादन की तकनीक चीन से आयात की। इस कारण से, भारतीय लोगों ने शक्कर को "सीनी" कहना शुरू कर दिया हो।

सारांश में, यद्यपि ये नाम की चीज़ें जो मैंने उल्लेखित की है असाधारण नहीं लगती, यह कुछ जटिलता को लेकिन चीन-भारत ऐतिहासिक सांस्कृतिक विनिमय के महत्वपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है। वास्तव में, दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक विनिमय में हमेशा से आध्यात्मिक और सांसारिक क्षेत्र शामिल रहा है। द ग्रेट थांग डायनेस्टी रिकॉर्ड ऑन द वेस्टर्न रीजंस में ह्वेन त्सांग द्वारा कही आड़ू और नाशपत्तियों की कहानी सिर्फ एक उदाहरण है।

लेखक पेइचिंग विश्वविद्यालय के रीसर्च एंट्री ऑफ़ ईस्टर्न लिटरेचर में प्राध्यापक हैं।