नई मंज़िलों की ओर बढ़ते भारत-चीन रिश्ते

भारत और चीन के संबंध, दुनिया के किसी भी दूसरे देशों के संबंध से अलग हैं। यह इसलिए भी बहुत ज़रूरी है क्योंकि पिछले लगभग दो हज़ार सालों से हमारे बीच निरंतर संवाद चलता रहा है।
by बी. आर. दीपक
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15 सितम्बर, 2005: वुहान विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ मेडिसिन में भारत के कुल 180 हाई स्कूल ग्रेजुएट छात्र-छात्राओं को दाखिला दिया गया। यह पहली बार हुआ है कि वुहान विश्वविद्यालय के अंडर ग्रेजुएट प्रोग्राम, अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए खोल दिए गए हैं। (वीसीजी)

चीन से मेरे संबंध की शुरुआत, मेरे हाई स्कूल के दिनों में हुई थी। दरअसल, चीनी सभ्यता और संस्कृति के बारे में मुझे एक किताब मिली थी। वह किताब मुझे इतनी पसंद आई कि मुझे चीनी सभ्यता और संस्कृति से प्यार हो गया। इसी आधार पर मैंने तय किया कि चीनी भाषा को समझना ज़रूरी है और मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा के लिए आवेदन भर दिया। मेरी किस्मत अच्छी थी, मुझे दाखिला मिल गया।

इस तरह, मैंने चीनी भाषा और साहित्य में स्नातक (बैचलर) और स्नातकोत्तर (मास्टर) की डिग्री हासिल की। आगे चलकर, चीनी इतिहास में उच्च शिक्षा के लिए मैं पेइचिंग विश्वविद्यालय गया। चीन में मैं भारत-चीन मामलों के कुछ अग्रणी विशेषज्ञों से मिला और उन्हीं के प्रभाव में मैंने भारत-चीन संबंधों में अपना शोध कार्य किया।

मुझे प्रभावित करने वालों में बहुत से लोग शामिल हैं । उदाहरण के लिए, प्रोफेसर जी श्येनलिन, प्रोफ़ेसर हुआंग बॉशेंग और मेरी पत्नी वांग याओ। जहाँ तक सवाल मेरे अकादमिक शोध का है, तो मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित प्रोफ़ेसर लिन छंगच्येई को जाता है जिन्होंने आधुनिक समय में भारत-चीन संबंधों पर बहुत शोध कार्य किए हैं। प्रोफ़ेसर जी श्येनलिन का भी इसमें बहुत बड़ा योगदान है। जब मैं पेइचिंग विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था, तब मैं प्रोफ़ेसर जी श्येनलिन से मिलने उनके घर जाया करता था। इन सब लोगों के प्रभाव में मुझे भारत-चीन संबंधों का अध्ययन करने की  प्रेरणा मिली। निश्चित तौर पर, मेरी पत्नी ने इस सब में मेरी बहुत मदद की, और आज भी हम दोनों भारत और दूसरी जगहों में भारत-चीन संबंधों को मज़बूत करने के प्रयास कर रहे हैं।   

मेरा शोध औपनिवेशिक काल से शुरू होता है और भारत-चीन संबंधों की हाल की स्थिति पर आकर खत्म होता है। मुझे अपने शोध से पता लगा कि भारत और चीन, दो सभ्यताओं पर खड़े हुए दो राज्य हैं।  इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले दो हज़ार सालों से दोनों सभ्यताओं के बीच निरंतर रूप से अंतर-सांस्कृतिक आदान-प्रदान चला आ रहा है। जब मैं चाइना में था, तो जहाँ भी मैं गया वहाँ मुझे इस आदान-प्रदान के सबूत देखने को मिले। इन चिह्नों को देखना अपने आप में एक अद्भुत अहसास था। मैं इन चिह्नों की गहराई तक जाता गया और धीरे-धीरे मैं कुछ ज़रूरी चीनी लेखन का हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद भी करने लगा, ताकि भारत और दुनिया के और लोग इन संबंधों के बारे में जान सकें। 

अगर प्राचीन काल में भारत-चीन संबंधों की बात करें, तो यह हमेशा ही एक देश से दूसरे देश आने-जाने वाले यात्रियों के ज़रिए होता था। इन यात्रियों में भारतीय और चीनी विद्वान भिक्षु शामिल थे, जिन्होंने बौद्ध साहित्य का पूरा संग्रह तैयार किया जिसने पूर्वी एशिया को प्रभावित किया या कहें कि उसकी संस्कृति पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। जहाँ तक सवाल औपनिवेशिक काल के संबंधों का है, तो साम्राज्यवाद के खिलाफ हुए संघर्षों में भारतीय और चीनी राष्ट्रवादियों ने एक-दूसरे के संघर्षों को समझा और एक-दूसरे का सहयोग किया। फिर चाहे ये संघर्ष जापान में हुए हों, चीन के भीतर हुए हों या कहीं और।

साथ ही, तत्कालीन दौर में, खासकर 1950 के दशक में और दोनों देशों के बीच संबंधों के दोबारा बहाल होने के बाद से, भारत और चीन ने यह समझ विकसित कर ली है कि उनका संबंध बहुत महत्वपूर्ण है और इसमें दुनिया के हालिया तंत्र का भविष्य तय करने की क्षमता है। मुझे लगता है कि यह संबंध, दुनिया के किसी भी दूसरे संबंध से अलग है। यह बहुत ज़रूरी इसलिए भी है कि पिछले लगभग दो हज़ार सालों से हमारे बीच निरंतर संवाद चलता रहा है। यही वजह है कि हमें भारत-चीन संबंधों को संजोना चाहिए और उन्हें आगे लेकर जाना चाहिए। 

अगर हम मानवता के पूरे इतिहास को देखें, तो दुनिया की चार प्राचीन सभ्यताओं―मेसोपोटामिया, मिस्र, भारत, और चीन―में से अंतिम दो एशिया में हैं और दोनों जीवित सभ्यताएँ हैं। ग्रीक और रोमन सभ्यताओं के साथ, ये चार अलग-अलग संस्कृतियों का निर्माण करती हैं―इस्लाम, भारतीय, चीनी, और पाश्चात्य संस्कृति।  “संस्कृतियों की टकराहट” के सिद्धांत के विपरीत, वस्तुओं, पूँजी, तकनीक और लोगों के मुक्त आवागमन के कारण ये संस्कृतियाँ लगातार एक-दूसरे से अंतर-सांस्कृतिक संवाद से जुड़ी रही हैं।  चीनी बौद्ध धर्म का जन्म, प्राचीन भारतीय या मध्य एशियाई खगोल विज्ञान, साहित्य, संगीत और भाषा के चीन में प्रचार-प्रसार के कारण हुआ। पुरातत्व के विशेषज्ञों की मानें, तो शक्कर का निर्माण, काग़ज़ का निर्माण, इस्पात उद्योग, रेशम, चाइनीज़ मिट्टी के बर्तन, और चीन से दूसरे देशों में, चाय की खोज के लिए की गई यात्राओं ने दुनिया भर के विज्ञान-ज्ञान को समृद्ध किया। 

भारत में, अगर हम भारतीय-विदेशी सांस्कृतिक आदान-प्रदान का इतिहास लिखने जाएँ, तो उसमें सबसे ज़्यादा बात चीन के साथ हमारे आदान-प्रदानों की ही होगी। यही बात चीन पर भी लागू होती है, न केवल प्राचीन काल में बल्कि आधुनिक इतिहास में भी। हम अपने राष्ट्रवादियों को कदम से कदम मिलाते देख सकते हैं। टैगोर और डॉक्टर कोटनिस जैसे लोगों ने दोनों देशों के बीच पुल बाँधने का काम किया। दोनों देशों के संबंधों की इस यात्रा में, 1962 जैसी कुछ अड़चनें आई हैं, लेकिन आपसी सहयोग को खत्म करने का यह कोई बड़ा कारण नहीं हो सकता।

लेखक भारत की राजधानी नई दिल्ली में स्थित चाइनीज़ और दक्षिण पूर्व एशियाई अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। यह लेख "सुंदर भारत सुंदर चाइना" ऑनलाइन फोटो प्रदर्शनी के शुभारंभ समारोह में उनके भाषण से लिया गया हिस्सा है।