चीन में टैगोर
बीसवीं शताब्दी के आगमन पर एकांत में रहने वाले चीन को अपने दरवाजे खोलने पड़े थे। इसके परिणामस्वरूप, सांस्कृतिक और साहित्यिक विनिमय काफी गुंजायमान हो गया। इसकी वजह से चीन को लोगों को रंग-बिरंगे साहित्य की दुनिया का लाभ मिला और बायरन, ह्यूगो, टॉलस्टॉय और तुर्गेनेव जैसे बड़े विदेशी नामों के बारे में देश ने जाना।
भारतीय कवि, दार्शनिक और सामाजिक कार्यकर्ता रबीन्द्रनाथ टैगोर उस लहर का हिस्सा थे और चीनी साहित्य व संस्कृति पर उनका गहरा असर था। श्वू ज़ीमो, बिंग शिन और जंग जंगत्वो जैसे कई आधुनिक लेखक भारतीय गुरु से प्रेरित थे। श्वू ज़ीमो उन्हें "बूढ़े पिताजी टैगोर" कहते थे और उनकी तुलना माउंट थाई से चीन के उगनेवाले सूरज से की। सन् 1924, ल्यांग छीछाओ, श्वू ज़ीमो और अन्य ने टैगोर को चीन दौरे का न्यौता दिया। यह उनकी पहली यात्रा थी जिसने चीनी लेखकों पर गहरा असर डाला तथा चीन के बौद्धिक एंव सांस्कृतिक मंडली के लिए उत्सव माना गया।
उस वक़्त, चीन और भारत दोनों पडोसी देश पश्चिमी उपनिवेशवाद और उत्पीड़न से बाहर निकलने का रास्ता खोज रहे थे। साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने के बाद टैगोर ने यूरोप की यात्रा की और वहां ईश्वर के दर्शनशास्त्र को बताने वाले उपनिषदों व भौतिकवाद पर आधारित पश्चिमी संस्कृति की तुलना में पूर्वी संस्कृति की महानता पर भाषण दिए। उन्होंने पश्चिम के "गतिवान" संस्कृति से जन्मी सामाजिक "बीमारी" की चिकित्सा के लिए पूर्वी दार्शनिकता में बताये गए "शांति" की अवधारणा को अपनाने की वकालत की। उस वक्त इस अवधारणा ने पश्चिमी उपनिवेशकों के आक्रमण से परेशान चीनी लोगों को प्रोत्साहन दिया।
हालांकि, सभी चीनी बुद्धिजीवियों, विशेष रूप से वामपंथी बुद्धिजीवी छन तुश्यो और माओ दुन द्वारा उनकी इस यात्रा का स्वागत नहीं किया गया। उनका मानना था की यद्यपि टैगोर की नीयत अच्छी है लेकिन उनकी यात्रा चीनी क्रांति के लिए लाभदायक नहीं होगी क्योंकि उनके विचार "गुलाम दार्शनिकता" का समर्थन करते हैं। यह चीनी लोगों को पश्चिमी ताकतों के खिलाफ़ लड़ने के बजाय उन्हें आत्मसमर्पण करने की प्रेरणा देगी। उस समय की परिस्थिति में वामपंथी बुद्धिजीवियों की चिंता में काफ़ी तथ्य था। परिणामस्वरूप, समर्थकों और विरोधकों ने अनावश्यक रूप से टैगोर की प्रशंसा की या निंदा। ऐसे में चीन-भारत विनिमय आधुनिक विचारों और साहित्य के मामले में खटास पर ख़त्म हुआ।
खेद है कि भारत के कवि व दार्शनिक की सद्भावना यात्रा असफलता में समाप्त हुई। हालांकि, उन्होंने कभी भी चीन यात्रा की इस घटना को मन में नहीं रखा और चीनी की परिस्थिति को लेकर चिंतित थे। विशेष रूप से जब जापान ने 1937 में आक्रमण किया तब टैगोर ने चीनी लोगों के प्रति सहानुभूति वाले पत्र, घोषणापत्र, और कविताएं खुलेआम प्रकाशित किया और जापानी आक्रमण के खिलाफ उनके विरोध की लड़ाई का समर्थन किया। चीन से उनकी गहरी मित्रता ने चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक संवाद के लिए अनमोल खजाना छोड़ा जो समय के साथ और मूल्यवान हो गया है। इसमें शंका नहीं है कि टैगोर एक वैश्विक साहित्यिक प्रभावी व्यक्ति के साथ एशियाई साहित्य की प्रतिमा हैं। गीतांजलि में संकलित उनकी कविताएं, स्ट्रे बर्ड्स, द गार्डनर और क्रिसेंट मून ने चीनी पाठकों की पीढ़ियों को प्रभावित किया है। उनके छंद कवि के "जीवन का गीत" को दर्शाते हैं जो जीवन की संपन्नता व तिरस्कार, दुनिया की ख़ुशी एंव दुःख तथा प्रकाश व स्वतंत्रता को गाते हैं। अपनी कविताओं में टैगोर ने एक साफ़ विश्व की कल्पना की जहां मानव और प्रकृति समरसता से सह-अस्तित्व में हैं।
उनकी कविताओं को पढ़ना मानो सुरम्य शांतिपूर्ण परिदृश्य में सैर की अनुभूति कराता है। कवि अपने व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाने, अपने मन से दोहरेपन को मिटाने, और अपने हृदय से सभी बुराइयों को हटाकर प्रेम जगाने की सलाह देते हैं। इस तरह की सार्वभौमिक प्रेम कहानी का उपयोग व्यक्तित्व नैतिकता सुधार में हो सकता है। हालांकि, यदि इसका उपयोग देश और लोगों को बचाने में करेंगे तो इसकी प्रभावशीलता सिर्फ भ्रम है। वास्तव में, टैगोर इस भ्रम से अनजान नहीं थे। केवल स्वंय को प्राप्त करने के लिए समर्पित एक कवि अच्छा हो सकता है लेकिन वह महानता तक नहीं पहुंच सकता। टैगोर की महानता यह है कि कैसे उनके "गीतों" ने शांतिपूर्ण भारत और दुनिया को प्रेरित किया। उन्होंने उदारतापूर्वक सामंतवादी प्रणाली से पीड़ित लोगों के बारे बताया। उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में सक्रियता से भाग लिया, सामंतशाही व फासीवाद के खिलाफ व्यावहारिक कार्रवाई की, और सभी को एकजुट होकर लड़ने के लिए बुलाया।
संक्षेप में कहें तो टैगोर ने आधुनिक चीनी विचारकों पर अमिट असर छोड़ा है। यह प्रभाव उनकी आत्मा, व्यक्तित्व, और भारत की आजादी की लड़ाई के आवाहन के दृढ संकल्प से आता है। आधुनिक चीनी कवि व लेखक ल्यो वुजी ने कहा, "भारतीय लेखकों में से टैगोर ऐसे हैं जिनके साथ हमारा करीबी संबंध है।" उन्होंने कहा, "एक बेहद सम्मानित कवि, जिनका हाल ही में देहांत हुआ, चीनी साहित्यिक मंडली में बेहद प्यारा रिश्ता था तथा हमारी ओर से आदरणीय और सराहनीय थे। इसके आलावा वे नए कवियों के लिए प्रेरणा के स्रोत थे और पूर्वी संस्कृति के महान समर्थक थे। उन्होंने चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक विनिमय को प्रोत्साहन दिया।"
चीन ने अनुसंधान लेखों के साथ टैगोर के कई लेखों का अनुवाद व रूपांतरण का आनंद लिया है। हालांकि, अब भी चीन में प्रसार व स्वीकृति को लेकर कोई सुनियोजित अध्ययन नहीं हुआ है। सुन यिश्वे द्वारा संकलित टैगोर इन चाइना टैगोर के चीनी विचारों, संस्कृति और साहित्य से हुए विस्तृत विनिमय का ब्यौरा है। यह चीन में टैगोर के अध्ययन के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
यह लेख चा ज़ीफ़ांग (1916-2008) के रबीन्द्रनाथ टैगोर इन चाइना (तीसरा खंड) की प्रस्तावना का अंश है। वे प्रसिद्ध लेखक, अनुवादक, विद्वान और साहित्य के "जुलाई स्कूल" के प्रमुख हस्ती तथा चीन में तुलनात्मक साहित्य व्यवस्था के सह-संस्थापक हैं।