चीन और भारत: एक साझा भविष्य का निर्माण

चीन और भारत समकक्ष सभ्यताएं हैं जो आज दुनिया की दो सबसे तेज बढ़ती और बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। साथ ही तीव्रता से बदल रहे बड़े समुदाय हैं जिनके अंदर तंत्र को बदलने की क्षमताएं हैं। मानव समाज के भविष्य को समझने की उनकी काबिलियत को आज व्यापक रूप से माना जा रहा है और उनकी सफलताएं वैश्विक परिवर्तन के लिए उनके प्रयासों को मिलाकर संयुक्त रणनीतियां बनाने में निर्भर है। उनके सहयोग विस्तृत मानवी विकास की गति में तेजी ला सकता है, ऐसी घटना जो पहले से ही इन दोनों समाजों के अंदर और साथ ही उनके निकटतम घेरे में देख सकते हैं।
वैश्विक केंद्रबिंदु का उत्तरी अटलांटिक से एशिया-प्रशांत की ओर तर्कसंगत स्थानांतरण ने वैश्विक भूराजनीतिक के बदलते व्यवहार पर नया संवाद शुरू कर दिया है, जिसमें चीनी और भारतीय विशेषज्ञ उभरते हुए नवप्रवर्तन और हट के विवरणों में योगदान कर रहे हैं। कम से कम, उनकी संभावनाओं के वादे चीन और भारत को मानव जाति के लिए साझे भविष्य का समाज बनाने का रोमांचक ऐतिहासिक मौका प्रदान करता है।
इसलिए चीन-भारत के रिश्ते दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संबंध बन गए हैं। इस बीच हाल के वर्षों ने नई दिल्ली और बीजिंग के बीच आपसी सहयोग के आशाजनक संकेत दिए हैं। जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा सुरक्षा या आतंकवाद जैसे मुद्दों पर जी20, ब्रिक्स, एससीओ और अन्य बहुपक्षीय मंचों जहां चीन और भारत अपनी रणनीतियां और रवैये अब समन्वय के साथ रखते हैं इसे बढ़ते समन्वय के रूप में देखा जा सकता है। इस साल चीन का सुधार और खुलापन चालीस साल पूरा हो गया। एक तरफ यह मौका चीन के लिए विशेष रूप से खास है, दूसरी तरफ इन दशकों में भारत-चीन रिश्तों के परिवर्तन को जांचने के लिए महत्वपूर्ण मौका देता है और उनके भविष्य की राह की संभावना की पूरी जानकारी तलाशता है।
दोस्ती की ओर वापस
बिना किसी शंका के, उनके औपनिवेशिक और शीत युद्ध विरासत की अमिट छाप ने उनकी आपसी समझ और नीतियों का पता लगाने में काम की हैं। उनकी भेदभाव की औपनिवेशिक विरासतों से लड़ने के लिए बहुत प्रयास किए गए जो आगे शीत युद्ध आयामों से प्रबलित था जिसने चीन और भारत को पूर्व-पश्चिम विभाजन में एक दूसरे के खिलाफ देखा था। मिलाप की प्रक्रिया, जो 1970 के शुरुआत में प्रारंभ हुई, टुकड़ों में और अक्सर किनारे पर होने के बावजूद भी स्थाई थी। चीजों को आगे बढ़ते रहने देने के लिए, पहले स्वीकार्य होने वाले पर सहमति के सिद्धांत पर ध्यान देना आया। यह वो समय था जब चीन अंदरूनी मामलों में ऐतिहासिक उथल-पुथल से गुजर रहा था, और भारत ने 1975 में आंतरिक आपातकाल की घोषणा की। हालांकि, 1980 के शुरुआत में, दोनों तरफ ने आपसी समझ और भरोसे की संभावना दिखाने के लिए व्यापार की शुरुआत की। कुछ ऐतिहासिक पहलों में, युवा भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा दिसंबर 1988 में की गई सफल यात्रा ने द्विपक्षीय रिश्तों के लिए बेहद जरूरी पुनःनियोजन दिया। सन 1990 की शुरुआत में, द्विपक्षीय व्यापार उनके नई शुरू हुई मैत्री के लिए सबसे स्वीकार्य और भरोसेमंद स्तंभ बनकर उभरा, तथा पूरा ध्यान आपसी विश्वास बनाने में लगा था। इसने बेहद आशाजनक राजनीतिक और भूराजनीतिक माहौल दिया जिसने 1991और 1996 में अपने ऐतिहासिक यात्रा के दौरान महामहिम ली फंग और राष्ट्रपति जियांग जेमिन द्वारा क्रमशः दो विश्वास से भरे अनुबंध पर हस्ताक्षर को आसान बनाया।
इन अभूतपूर्व यात्राओं ने मजबूत चीन-भारत संबंधों की नींव रखी जिसने चीनी नेताओं द्वारा सिर्फ भारत से जुड़ी यात्रा के चलन की शुरुआत की जो अन्य देशों के साथ संयुक्त नहीं होती थी। इस दौर ने दोनों देशों द्वारा कई द्विपक्षीय सलाहकार तंत्रो की स्थापना की जिसमें उनके सबसे टिकाऊ सीमा के सवाल पर संयुक्त कार्यकारी दल शामिल है जो एक ऐसा मंच बन गया जहां आपसी शांति और सुरक्षा से जुड़े सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की जाती।
सन 1990 चीन के असाधारण उदय का दशक था। यह वह भी समय था जब भारत ने ढांचागत सुधारों और खुलने को लेकर अपने खुद के प्रयोग शुरू किए। तब तक, बीजिंग के आर्थिक सुधारों और खुलेपन को लेकर दशक-लंबे प्रयोग ने दुनिया के सामने अंतर्राज्यीय संबंधों का एक नया क्षेत्र पेश किया। चीन अपने विरोधी कहे जाने वालों के समेत सभी देशों के साथ मजबूत आर्थिक रिश्ते बना रहा था। यह ग्राहम एलिसन्स थुसीडीड्स ट्रैप थिसिस से बचने और चीन की धमकी की पश्चिमी कहानियों की कल्पना के उलट कर उसे बेअसर करना चीन की जादुई युक्ति बनने वाली थी।
यह वो काल था जिसमें चीन और भारत दोनों ने सभी तरह के क्षेत्रीय मंच जैसे कि दक्षिणपूर्व एशियाई देशों का संगठन व कई और तरह के मंचों से जुड़ गया। तेजी से, चीन और भारत क्षेत्रीय मुद्दों को निपटाने के लिए क्षेत्रीय मंचों पर साथ में काम करने लगे। सन 1990 की शुरुआत में, चीन पूरी तरह से नए अंतर्राष्ट्रीय मंचों से जुड़ गया जिनमें भारत पहले से सदस्य था। इन फैसलों ने द्विपक्षीय व्यापार को बेहतर बनाया और बातचीत को गहरा बनाया जिसने बाद में आपसी समझ और भरोसे में सुधार को आसान बनाया। यह प्रचलन थोड़े समय के लिए भारत और पाकिस्तान द्वारा मई 1998 में किए गए परमाणु परीक्षणों से बाधित हुआ था, लेकिन चीन और भारत ने जल्द ही बातचीत दोबारा शुरू कर दी। सितंबर 2001 में हुए आतंकवादी हमलों के बाद इस मेल-मिलाप में फिर से तेजी आ गई। इस बीच, 1990 के आखिर से, दोनों तरफ बढ़ती चेतना रही है कि सुरक्षा और विकास चुनौतियों को सुलझाने के लिए बहुपक्षीयता ही एकमात्र मार्ग है।
चीन का उदय, उभरता भारत
चीन के दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी और भारत की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर उदय को नई शताब्दी का अग्रदूत बताया है। उनके वैश्विक संबंधों को रेखांकित करना विदेश में रहने वाले चीनी और भारतीयों के लिए, जो अपने देशों के उभरते बड़े बाजारों की वजह से सशक्त हुए हैं, एक नए तरह का सक्रियतावाद बन गया है। जिससे वे नए दानदाता और निवेशक बनें। दोनों देश अब तीसरे देशों के प्रमुख योजनाओं में शामिल हैं। चीन का बेल्ट एंड रोड उपक्रम (बीआरआई) ने भारत को एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक, ब्रिक्स न्यू डेवलपमेंट बैंक और शंघाई सहयोग संगठन जैसे संस्थानों में भाग लेते देखा है। इसके साथ बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार आर्थिक गलियारा जैसी योजनाएं भी शामिल हैं। एक और प्रस्ताव चीन-नेपाल-भारत सांस्कृतिक मार्ग वर्तमान में विचार में है।
चीन के बीआरआई को भारत में कुछ लोग नए विवादस्पद मुद्दे के रूप में देखते हैं। भारत में कुछ मीडिया संस्थानों ने बीआरआई के बहिष्कार की चर्चा की है। हालांकि, नई दिल्ली, सिर्फ एक बार मई 2017 में बेल्ट एंड रोड मंच पर अनुपस्थित रहा है और औपचारिक रूप से सिर्फ चीन-पाकिस्तान आर्थिक मार्ग पर आपत्ति जताई थी। अप्रत्यक्ष रूप से, भारत ने बीआरआई पर चिंता जताई है जिससे बीजिंग को भारत के निकट पड़ोसियों में पहुंच और प्रभाव बेहतर होगा और हिंद महासागर में उसकी उपस्थिति बढ़ जाएगी। लेकिन हिंद महासागर ने भी चीन का स्वागत किया है और भारतीय नौसेनाओं ने संयुक्त नौसेना अभ्यास, अदन की खाड़ी में संयुक्त समुद्री डकैती विरोधी अभियान आयोजित किए थे। इस सहयोग की जड़ता और मजबूत साम्यावस्था का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है तथा उन विवादों से बातचीत को प्रभावित नहीं होने दिया।
यह स्पष्ट हो चुका है कि बहुपक्षीय स्तरों पर बढ़ते संबंधों ने द्विपक्षीय रिश्तों पर सकारात्मक असर डाला है। उदय होते चीन के साथ और एक उभरता भारत अपने संबंधित जगह और समय के विस्तार में ध्यान दे रहा है, वे विभिन्न खिजाने वाले मसलों को परिपेक्ष्य में रखने में समर्थ हो रहे हैं तथा गतिरोध पर राजनयिक हल निकाल रहे हैं। यह बेहद प्रोत्साहन की बात है की राष्ट्रपति शी चिनफिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-- दोनों निर्णायक, महत्वकांक्षी और ऊर्जावान नेताओं---ने वास्तविक व्यक्तिगत सखापन बनाया और दिखाया है। विभिन्न बहुपक्षीय मंचों पर उनके बारंबार बातचीत ने जन उम्मीद या मीडिया द्वारा द्विपक्षीय परिणामों की जानकारी मांगने के किसी दबाव के बिना द्विपक्षीय मुद्दों को सुलझाने का मौका प्रदान किया।
यह तरीका 2017 के डोंग लांग (डोकलाम) गतिरोध के दौरान सफलतापूर्वक उपयोग में लाया गया, जब श्यामन में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लगातार बहुपक्षीय बातचीतों के साथ-साथ हुई कई द्विपक्षीय बैठकों ने सीमा के तनाव को हल करने में मदद की। और इस साल अप्रैल में तब मोदी और शी के बीच अनौपचारिक शिखर सम्मेलन को चीन-भारत के रिश्तों को एक बार फिर से जोड़ने का श्रेय जाता है, जो अब समन्वय और सहयोग के वुहान मिजाज से निर्देशित है।
आगे का रास्ता
हालांकि, चीन-भारत सीमा विवाद सबसे स्थाई और जटिल समस्या बनी हुई है जो द्विपक्षीय रिश्तों में रुकावट डाल रही है, अधिक मुश्किल गांठों को हल करने के लिए एक बेहतर माहौल बनाने के लिए दूसरे मसलों को और तेजी से सुलझाया जा सकता है। सन 2017 में हुए 84.44 बिलियन यूएस डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार का स्थाई और विकट व्यापार घाटा 60 बिलियन यूएस डॉलर के करीब पहुंचना एक है। चीन द्वारा भारत के गैर-बासमती चावल और शक्कर के आयात की इजाजत के हाल के कदम संतुलित व्यापार को बनाए रखने आपसी आर्थिक संबंधों में तेज उन्नति को निश्चित करने के लिए चीन के लिए आशाजनक शुरुआत देता है। हाल ही में, भारत में चीन के निवेश में भी तेजी से बढ़ोतरी देखी गई है।
चीन का भारत के उत्पादन क्षेत्र में निवेश चीन से होने वाले आयात की जरूरत को कम ही नहीं करेगा बल्कि भारत के निर्यात को प्रतिस्पर्धात्मक बनाकर व्यापार के घाटे को कम कर देगा। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण उपक्रम है साथ-साथ आतंकवाद-विरोधी अभ्यास और प्रशिक्षण संस्थानों से अधिकारियों की अदला-बदली को दोबारा शुरू करना है। भारत इसी तरह चीन के विभिन्न संवेदनशील मुद्दों जैसे कि इंडो-पैसिफिक या अमेरिका-जापान-भारत-ऑस्ट्रेलिया के चतुष्टक पर चर्चा करना चाहता है। सभी स्तरों पर बिना रुकावट नियमित प्रवाह, खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच, अब बेहतर समन्वय के लिए वादा कर रहा है जो आपसी शांति और समृद्धि को चरम पर ले जाने के लिए जगह बना रहा है तथा वैश्विक शासन ढांचे के परिवर्तन की योगदान क्षमता को बेहतर कर रहा है।
लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्राध्यापक हैं और बीजिंग के चारहर इंस्टिट्यूट में सहायक वरिष्ठ फेलो हैं।