भारत में मध्य एशिया की ऊर्जा रणनीति और चीन-भारत ऊर्जा सहयोग

हाल में भारत विश्व का चौथा सब से बड़ा ऊर्जा उपभोग देश है। भारत को 80 प्रतिशत तेल और 25 प्रतिशत गैस आयात करने की आवश्यकता है। ऊर्जा सुरक्षा पर स्थिर बाहरी ऊर्जा सप्लाई की महत्वता को कैसे सुनिश्चित करना है। मध्य एशियाई क्षेत्र का ऊर्जा संसाधन प्रचुर है। तुर्कमेनिस्तान की प्राकृतिक गैस का भंडार 1.75 अरब घनमीटर है, जो विश्व का 9.4 प्रतिशत है और विश्व के तीसरे स्थान पर है। कजाकिस्तान में तेल भंडार 3.9 टन है, जो विश्व के तेल भंडार का 1.63 प्रतिशत है और विश्व में 12वें स्थान पर है। ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान के पास प्रचुर मात्रा में पानी व बिजली संसाधन है, जबकि सिर्फ 10 प्रतिशत का इस्तेमाल किया जाता है। मध्य एशिया स्वाभाविक रूप से भारत द्वारा ऊर्जा के आयात के बहुपक्षीयता की खोज करने का एक अहम विकल्प बनता है।
लम्बे अरसे से भारत ने मध्य एशिया को “विस्तारित पड़ोसी” मानता है। दोनों के बीच पुराना और मैत्रीपूर्ण इतिहास और गहरा सांस्कृतिक संपर्क है। 2012 में भारत ने “मध्य एशिया को जोड़े” की नीति पेश की। 2015 में नरेंद्र मोदी ने मध्य एशियाई देशों की यात्रा की, जिसमें मध्य एशिया में भारत के राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को प्रगाढ़ करने की इच्छा प्रतिबिंब है।
अहम ऊर्जा परिवहन की लाईन का निर्माण करना
मध्य एशिया के साथ ऊर्जा सहयोग को मज़बूत करके खुद ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए अब भारत लुक नोर्थ की ऊर्जा रणनीति बना रहा है। भारत ने वैदेशिक राष्ट्रीय रणनीति की ऊंचाई से“इंटरनेशनल नोर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर”की महत्ता पर जोर दिया, ताकि प्रमुख ऊर्जा परिवहन लाईन की निर्माण परियोजना के कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जा सके और मध्य एशिया और रूस के ऊर्जा संसाधन, खास तौर पर प्राकृतिक गैस प्राप्त की जा सके। हालांकि चीन और मध्य एशिया के बीच ऊर्जा सहयोग चल रहा है, फिर भी मध्य एशियाई देश भी ऊर्जा के निर्यात की विविधता को ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। भारत और मध्य एशिया के बीच ऊर्जा सहयोग की अभी भी बड़ी गुंजाइश रही है।
अब्बास बंदरगाह और चाबहार बंदरगाह का केंद्र स्थान। आईएनएसटीसी (INSTC) भारत द्वारा ईरान से गुजरते हुए मध्य एशिया और रूसी बाजार को जोड़ने का परिवहन कॉरिडोर है। अब इसे रूस, मध्य एशियाई देशों, ईरान और ओमान आदि देशों का समर्थन मिल चुका है। 2015 से 2020 तक भारत की राष्ट्रीय विदेशी व्यापार रणनीति में भारत और मध्य एशिया के व्यापार और पूंजी में आईएनएसटीसी के अहम स्थान को स्पष्ट रूप से तय किया है। खास तौर पर ऊर्जा क्षेत्र में भारत और मध्य एशिया नज़दीक है, लेकिन थलीय संपर्क नहीं है। मध्य एशिया को जोड़ने के लिए भारत को पाकिस्तान से गुजरना पड़ता है। इसलिए आईएनएसटीसी ने पाकिस्तान को पार कर समुद्री रास्ते से ईरान जाने पर जोर दिया। हालिया आईएनएसटीसी में ईरान के अब्बास बंदरगाह और चाबहार बंदरगाह का केंद्रीय स्थान है।
अब्बास बंदरगाह ईरान में रेल मार्ग से कैस्पियन सागर के दक्षिणी तट के अनज़ारी बंदरगाह को जोड़ता है। फिर समुद्री मार्ग से कैस्पियन सागर के उत्तरी तट में तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान के रेल मार्ग को जोड़कर रूस जाता है। जबकि चाबहार बंदरगाह रेल मार्ग के जरिए अफ़गानिस्तान और मध्य एशियाई बाजार को जोड़ता है। भारत 19.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर की पूंजी लगाकर चाबहार बंदरगाह में सुधार करने की योजना बना चुका है। आईएनएसटीसी लागू करने से भारत से रूस को सामान जाने वाले समय 25 से 30 दिनों में सीमित रहेगा, जबकि आज सुएज़ नहर गुजरने की लाईन के लिए 45 से 60 दिनों की आवश्यकता है। साथ ही भारत आईएनएसटीसी को“अशगबत समझौता परियोजना”(Ashgabat Agreement Project)को जोड़ने पर भी विचार कर रहा है। यह परियोजना उजबेकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान और ओमान चार देशों को जोड़ने वाली रेल मार्ग परिवहन की परियोजना है।
प्रमुख प्राकृतिक गैस पाइप लाईन। (1) तुर्कमेनिस्तान-भारत प्राकृतिक गैस पाइप(टीएपीआई TAPI)। इस पाइप लाईन की कुल लम्बाई 1800 किलोमीटर है, जो हर साल 330 घनमीटर की प्राकृतिक गैस सौंप सकती है। इस पाइपलाइन पर चारों देशों की सरकारों के बीच समझौता संपन्न हुआ। एशियाई विकास बैंक ने इस का व्यवहार्यता अध्ययन भी किया। भारत और पाकिस्तान ने सीमापार खर्चे पर भी वार्ता की। लेकिन अफगानिस्तान और पाकिस्तान की अस्थिर राजनीतिक परिस्थिति और आतंकवाद धमकी को ध्यान में रखते हुए भारतीय उद्यमों ने बड़ा उत्साह नहीं जताया। हाल में भारत टीएपीआई की जगह में नयी लाईन पर विचार कर रहा है।
(2)तुर्कमेनिस्तान-ईरान-भारत पाइपलाइन(टीआईआई TII)और ईरान-ओमान-भारत पाइपलाइन(आईओआई IOI)। ईरान और पश्चिमी संबंध में शैथिल्य लाने के साथ भारत टीआईआई और आईओआई को टीएपीआई की जगह लेने की लाईन पर मुख्य रूप से विचार करता है। तुर्कमेनिस्तान-ईरान भाग में टीआईआई पाइप थलीय पाइप है, जबकि ईरान-भारत भाग समुद्री पाइप है, जो भारत के मुंबई तक पहुंच सकता है। भारत तुर्कमेनिस्तान और ईरान दोनों देशों के प्रचुर प्राकृतिक संसाधन को स्वीकार कर सकता है। आईओआई समुद्री पाइपलाइन है, जो ईरान के चाबहार बंदरगाह से समुद्री पाइपलाइन से होती हुई ओमान पहुंचती है, अंत में समुद्री पाइपलाइन के जरिए भारत के गुजरात पहुंचती है। टीआईआई और आईओआई पाइपलाईन अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में सुरक्षा जोखिम से बचाती है। टीएपीआई की जगह लेने वाली लाईन की हैसियत से वह भारत द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक गैस पाइपलाइन परियोजना है। इसका एकमात्र बाधा संभवतः अमेरिका का विरोध है। चूंकि अमेरिका और ईरान का संबंध इतने अच्छे नहीं है। अमेरिका ईरान को क्षेत्रीय प्राकृतिक गैस का व्यापारी हब नहीं स्वीकार कर सकता है।
जापान, अमेरिका और रूस के सहयोग को महत्व देना
भारत जापान को मध्य एशिया में ऊर्जा सहयोग करने का अहम साझेदार मानता है। जापान मध्य एशिया के विकास और सहयोग के प्रमुख भागीदारियों में से एक है। भारत मध्य एशिया में जापान के साथ ऊर्जा सहयोग करना चाहता है और दोनों देशों के बीच श्रेष्ठता की आपसी आपूर्ति कर चीन के साथ प्रतिस्पर्द्धा शक्ति को मज़बूत करना चाहता है।
जापान और मध्य एशियाई देशों का ऊर्जा सहयोग दिन ब दिन गहरा होता जा रहा है। मध्य एशियाई क्षेत्र के ऊर्जा बुनियादी संरचनाओं और संबंधित ऊर्जा प्रतिभाओं के प्रशिक्षण और तकनीक प्रशिक्षण आदि क्षमताओं के निर्माण के लिए जापान 16 अरब अमेरिकी डॉलर की पूंजी लगाएगा। मध्य एशिया के ऊर्जा क्षेत्र के विकास में जापान के अनेक बड़े उद्यमी ग्रुपों को बहुत ज्यादा अनुभव है। मिसाल के तौर पर, अंतर्राष्ट्रीय तेल विकास निगम(आईपीईएक्स IPEX)के पास उत्तरी कैस्पियन सागर प्रचलन कॉर्पोरेट एसोसिएशन के 7.5 प्रतिशत का शेयर होता है। इस कॉर्पोरेट एसोसिएशन का मकसद कजाखस्तान के काशागन तेल फ़ील्ड का विकास करना है। मध्य एशिया में ऊर्जा संसाधन को प्राप्त करने की प्रतिस्पर्द्धा शक्ति को मज़बूत करने के लिए भारत मध्य एशिया में जापान के साथ समंव्य को मज़बूत करने से भारत-जापान और मध्य एशिया के त्रिपक्षीय सहयोग ऊर्जा प्रणाली स्थापित करना चाहता है, जापान की वित्तपोषण शक्तिऔर क्षमता निर्माण की शक्ति का पूरा इस्तेमाल कर भारत की शॉटकमिंग को आपूर्ति करना चाहता है।
भारत शांगहाई सहयोग संगठन को मध्य एशिया के ऊर्जा क्षेत्र में अपने प्रभाव को प्रगाढ़ करने का अहम प्लेटफ़ार्म मानता है। शांगहाई सहयोग संगठन ने 2006 में ही ऊर्जा क्लब की स्थापना करने का सुझाव पेश किया, जिसका मकसद सदस्य देशों के ऊर्जा सहयोग को मज़बूत करना है और क्षेत्रीय ऊर्जा नेटवर्क की स्थापना करना है। भारत का मानना है कि मध्य एशिया के ऊर्जा संसाधन को प्राप्त करने में चीन अवसर ज़ब्त कर चुका है। चीन ने ऊर्जा क्लब प्रणाली को मज़बूत कर क्षेत्रीय ऊर्जा सहयोग के प्रति आपत्ति उठायी। अब भारत शांगहाई सहयोग संगठन में भाग ले चुका है। वह चाहता है कि रूस का समर्थन पाकर शांगहाई सहयोग संगठन के अंदर ऊर्जा क्लब प्रणाली स्थापित की जाए, ताकि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के ऊर्जा आपसी संपर्क को आगे बढ़ा सके, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के ऊर्जा नेट की स्थापना करे और ईरान के चाबहार बंदरगाह को ऊर्जा व्यापार और परिवहन के बक स्थान को स्थापित करे।
इस के अलावा भारत आईएनएसटीसी और अमेरिका द्वारा प्रस्तुत “नये रेशम मार्ग की विजन” और रूस के “यूरोप-एशिया आर्थिक लीग” के जोड़ की खोज करने की कोशिश भी करता है। एक, भारत विभिन्न आह्वानों की परियोजनाओं के सहयोग की खोज करता है। दूसरा, भारत राजनीति, अर्थतंत्र और ज्ञान आदि के जरिए दो आह्वानों का समर्थन देता है, ताकि रूस और कजाकिस्तान के आईएनएसटीसी का समर्थन पा सके और“रेशम मार्ग आर्थिक पट्टी”का विपक्ष में काम कर सके।
चीन के साथ सहयोग भारत की ऊर्जा रणनीति के लिए लाभदायक है
भारत की मध्य एशियाई ऊर्जा रणनीति जापान, अमेरिका और रूस आदि बड़े देशों के सहयोग को महत्व देती है, लेकिन चीन के साथ सहयोग को मज़बूत करने का सामरिक प्रबंध नहीं है। वह चीन की“रेशम मार्ग आर्थिक पट्टी” के विपक्ष में काम करना चाहता है। इस का मुख्य कारण है कि चीन और भारत ऊर्जा उपभोग के बड़े देश हैं, मध्य एशिया में दोनों का स्पष्ट ऊर्जा प्रतिस्पर्द्धा संबंध है और इधर के सालों में दोनों का राजनीतिक आपसी विश्वास मुश्किल से उन्नत किया जाता है।
निसंदेह चीन की “रेशम मार्ग की आर्थिक पट्टी” से जोड़ने से मध्य एशिया में भारत के ऊर्जा लाभांश के लिए लाभदायक होगा। अमेरिका की “रेशम मार्ग की विज़न” वास्तव में अमेरिकी सेना के हटाने से अफगानिस्तान के पुनःनिर्माण की रणनीति है, जिस का मकसद अफगानिस्तान को मध्य एशिया और दक्षिण एशिया को जोड़ने का यातायात और ऊर्जा व्यापार का हब बनाने की कोशिश करना है। इस में भारत ने प्रमुख भूमिका अदा नहीं की। लेकिन अमेरिका और ईरान की आपसी शत्रुता से अमेरिका भारत के “इंटरनेशनल नोर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर”पर सक्रिय रुख नहीं अपनाएगा। जबकि इस क्षेत्र में अमेरिका की आतंक-रोधी रणनीति के प्रति पाकिस्तान ने भी असंतोष जताया। अमेरिका पर पाकिस्तान का विश्वास साल दर साल कम हो रहा है। पाकिस्तान पर अमेरिका की भूमिका इतना बड़ी नहीं है कि भारत पाकिस्तान से गुजरकर मध्य एशिया को जोड़ सकता।
जबकि “यूरोप-एशिया आर्थिक लीग” मुख्यतः सीआईएस देशों तक ही सीमित है। भारत की भागीदारी सिर्फ़ बाहरी है, जिस का अपेक्षाकृत मज़बूत राजनीतिक रंग है और जिस में रूस का प्रमुख व केंद्रीय स्थान प्रतिबिंब है। लेकिन इस में बुनियादी संरचनाओं, वित्तीय प्रबंध और नीतिगत जोड़ने आदि क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग को आगे बढ़ाने की मजबूत प्रेरणा शक्ति का अभाव है। भारत और“यूरोप-एशिया आर्थिक लीग”के जोड़ने से मध्य एशियाई ऊर्जा रणनीति का राजनीतिक समर्थन पाना है, जबकि ज़्यादा आर्थिक लाभ नहीं है।
चीन और मध्य एशियाई देशों के बीच और घनिष्ट आर्थिक व व्यापारिक संबंध है, जो मध्य एशियाई देशों का सब से बड़ा व्यापारी साझेदारी है। चीन और मध्य एशियाई देशों का राजनीतिक आपसी विश्वास भी निरंतर उन्नत होता रहा है। ऊर्जा के आपसी संपर्क में चीन की पूंजी निवेश और तकनीक की श्रेष्ठता है और यथार्थ अनुभव है। खास तौर पर चीन पाकिस्तान पर अपेक्षाकृत बड़ा असर पड़ सकता है और भारत द्वारा पाकिस्तान को पारकर मध्य एशिया को जोड़ने के जोखिम को कम कर सकता है। इसलिए चीन के साथ समंव्य और सहयोग को मज़बूत करने से निसंदेह भारत की मध्य एशियाई ऊर्जा रणनीति को प्रबल रूप से आगे बढ़ाया जा सकता है।
हालांकि मध्य एशियाई ऊर्जा संसाधन पर भारत और चीन के बीच कुछ हद तक प्रतिस्पर्द्धा संबंध पैदा हुआ है, फिर भी यह प्रतिस्पर्द्धा सहने के दायेरे में रहा है। चीन में बाहरी प्राकृतिक गैस की सप्लाई वातावरण अपेक्षाकृत ढीला रहा है, जो बुनियादी तौर पर चारों ओर के आयात ढांचे की स्थापना की गयी है। पाइपलाइन प्राकृतिक गैस में मध्य एशिया चीन का प्रमुख आयात स्रोत है। लेकिन चीन और रूस के बीच प्राकृतिक गैस पाइप के विकास से रूस से आयी प्राकृतिक गैस ज़्यादा होगी। दूसरी ओर पूर्वी समुद्री एलएनजी का आयात साल दर साल तेज़ी से बढ़ता रहा है। ख़ास तौर पर“शेल गैस क्रांति”ने अमेरिका को प्राकृतिक गैस का शुद्ध निर्यात देश बनाया। अमेरिका और कानाडा चीन की प्राकृतिक गैस का अहम सप्लाई पक्ष बन सकेंगे।
इसलिए चीन के साथ सहयोग को मज़बूत करना भारत की मध्य एशियाई ऊर्जा रणनीति के लिए लाभदायक होगा, जबकि चीन को मध्य एशिया में भारत द्वारा ऊर्जा को हासिल करने पर खुला रुख अपनाना चाहिए। दोनों देशों को विविधतापूर्ण सहयोग तरीके अपनाने चाहिए। उदाहरण के तौर पर, चीनी उद्यम टीएपीआई और मध्य एशिया-दक्षिण एशिया बिजली नेट के आपसी संपर्क आदि ऊर्जा की बुनियादी संरचनाओं में भाग ले सकते हैं। भारत तो चीन के प्रभाव का इस्तेमाल कर पाकिस्तान के ऊर्जा परिवहन के राजनीतिक जोखिम से बच सकता है। चीन के आर्थिक लाभांश के अलावा क्षेत्रीय प्रभाव को, खास तौर पर अफगानिस्तान के शांतिपूर्ण बंदोबस्त और राजनीतिक प्रक्रिया में चीन की भूमिका को भी उन्नत किया जाएगा। इसके अलावा चीन और भारत सहयोग कर मध्य एशियाई तेल और गैस के विकास के हक को हासिल कर सकते हैं और ऊपर भाग के संसाधन, मध्य भाग के परिवहन और निचले भाग के उपभोग बाजार को कारगर रूप से जोड़ कर संयुक्त रूप से ऊर्जा संसाधन की अंतर्राष्ट्रीय प्रवचन शक्ति को उन्नत कर सकेंगे। खास तौर पर मौजूदा एशिया में प्राकृतिक गैस की कीमत प्रणाली मुख्यतः दीर्घकालीन अनुबंध पर निर्भर है या तो तेल दाम से जोड़ता है। जबकि बाजार की सप्लाई व मांग की स्थिति का प्रतिबिंब नहीं है। सब से अहम प्राकृतिक गैस के उपभोग देश होने के नाते चीन और भारत के गहन सहयोग से प्रबल रूप से एशिया में उचित व स्थिर प्राकृतिक गैस की कीमत प्रणाली की स्थापना को आगे बढ़ाया जा सकेगा।
लेखक चीनी राज्य ग्रिड एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट लिमिटेड के अनुसंधानकर्ता हैं।