भारत और चीन के बीच आपसी सीख के पत्ते

नई शताब्दी में, चीन-भारत मित्रता के ‘निग्रोधा’ वृक्ष की जड़ों को गहराई और शानदार पत्तों को अधिक बढ़ने देना चाहिए।
by वांग बांगवेई
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मई 29, 2010: तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल (दूसरे से बाएं) जो हनान प्रांत के ल्वोयांग शहर भारतीय शैली के बौद्धधर्मी हॉल के तैयार होने के समारोह में व्हाइट हाउस मंदिर, जिसे ‘चीन का पहला बौद्धधर्मी मंदिर’ भाग लेती हुई। वीसीजी

विश्व के इतिहास में, भारत और चीन दोनों एकमात्र ऐसे देश हैं जो निकटता और असाधारण रूप से सामान अनुभव साझा करते हैं। चीन और भारत दोनों ही प्राचीन सभ्यताएं हैं जिनके पास एक लंबा इतिहास और अविरल सांस्कृतिक विकास है। दोनों ही बेहद विस्तृत इलाके और बड़ी जनसंख्या के साथ एशिया और विश्व के विशाल देश हैं। इन दोनों की संयुक्त जनसंख्या विश्व के करीब एक तिहाई जनसंख्या का हिस्सा है। हम हिमालय की प्राकृतिक सीमा रेखा के साथ वाले पड़ोसी मुल्क हैं।
हम कई समानताओं को साझा करते हैं, और हमने पिछले 2000 सालों से एक दोस्ताना इतिहास बनाया हुआ है। इन दो हजार सालों में, सिर्फ 1960 की शुरुआत में दोनों देश दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन बेहद संक्षिप्त संघर्ष में शामिल हुए। हमारे आसपास की दुनिया को देखते हुए, क्या हम ऐसा कोई उदाहरण बीते वक़्त या वर्तमान में एशिया, यूरोप या अमेरिका में पा सकते हैं ? संभवतः ऐसी कोई भी नहीं है। मानवजाति के इतिहास ने कई सभ्यताएं देखी, लेकिन वे अलग होने के बाद उनकी परम्पराएं ही दूर की यादों में रहती हैं। प्राचीन समय से अब तक, कई देशों और क्षेत्रों के बीच असंख्य दीर्घकालीन संघर्ष, बड़ी और छोटी लड़ाइयां हुईं, कुछ विवाद आज भी जारी हैं। विश्व इतिहास की विशाल छाया को देखते हुए, भारत और चीन के बीच के संपर्क की विरासत इस बीच किसी और जगह से काफी हट के रही है। “जोंगक्वो” को अंग्रेजी में “चाइना” भाषांतरित किया जाता है। इसका मूल संस्कृति शब्द “चीना” है। पश्चिमी भाषाओं में ‘चाइना’ शब्द मुख्यतः संस्कृति से लिया गया है। यह क्या बताता है ? यह, कम से कम, साबित करता है कि दुनिया भर में अधिकतर लोग चीना के माध्यम से चीन को समझ पाए--निश्चित रूप से यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत ने दुनिया भर में चीन को समझने और जानने में महत्वपूर्ण किरदार निभाया है।
भारत राष्ट्र का अंग्रेजी नाम भी संस्कृति से निकला हुआ है-- “सिंधु” शब्द का अर्थ “नदी” या “सिंधु नदी” है। फारस के लोगों ने भारत के लिए सबसे पहले इस शब्द का इस्तेमाल किया। बाद में, यह ग्रीस में फैल गया, और बाद में बिगड़े हुए उच्चारण से ‘भारत’ बना। आज के दिन, चीनी नागरिक चीन को ‘जोंगक्वो’ कहते हैं और भारतीय लोग अपने देश को ‘भारत’ कहते हैं, अधिकतर दुनिया के विभिन्न देशों में लोगों द्वारा दोनों देशों को चाइना और इंडिया के नाम से जाना जाता है। आज हम कहते हैं पृथ्वी बड़ी है, लेकिन वास्तव में दुनिया छोटी है क्योंकि संचार और लोगों के बीच आदान-प्रदान तथा देश आज अधिक तेज और विस्तृत है, और अब दोनों देशों के लिए ‘चाइना’ और “इंडिया” सर्वाधिक इस्तेमाल किया हुए नाम हैं। कई ठोस उदाहरण इस मुद्दे की व्याख्या करने में मदद करते हैं, लेकिन मुझे लगता है भाषा और कला के पहले बौद्ध धर्म इसमें मुख्य और संभवतः सर्वप्रथम है। निश्चित रूप से, कई और इससे अधिक ठोस मामले दिए जा सकते हैं। बौद्ध धर्म का जन्म भारत में हुआ और यह चीन में फैला, जहां इसे बहुत सारे चीनी नागरिकों ने करीब दो हजार साल पहले अपनाया। यदि भारत बौद्ध धर्म का मूल है, तो चीनी बौद्ध धर्म को पेड़ और पत्ता कहा जा सकता है जो भारतीय जड़ों से निकला है। हालांकि, यह मुद्दों का ठीक से विवरण नहीं करता है। चीनी बौद्ध धर्म के इतिहास की कहानी शायद कुछ रोशनी दे सकती है। मध्य थांग राजवंश के दौरान, एक बौद्ध साधु जिनका नाम अमोघवज्र था, भारत से चीन की यात्रा की। अमोघवज्र ने चीन में गूढ़ बौद्ध धर्म को प्रसारित किया जो चीनी नागरिकों के लिए बहुत श्रद्धेय हो गई। जिन साधुओं ने थांग राजवंश (618-907) के दौरान भारत से चीन की यात्रा की उनमें से तीन ऐसे थे जिनकी “खेइयुआन युग के पहले तीन महान बौद्ध गुरु” के रूप में पूज्यनीय बने, और अमोघवज्र उनमें से एक थे। अमोघवज्र का हानक्वांग नाम का एक चीनी अनुयायी था। अमोघवज्र जब लौटकर भारत आए, हानक्वांग भी उनके साथ गए। हानक्वांग की जीवनी बायोग्राफीज ऑफ एमिनेंट मॉन्क्स ऑफ सॉन्ग डायनेस्टी (सोंग काओसंग च्वान) की 27वीं पुस्तक में मिली थी। लेखों के अनुसार, भारत से वापस आते वक्त, हानक्वांग थांग सम्राट तेइजोंग के शासन काल में वुथाई पर्वत गए। वुथाई पर्वत पर रहने वाले एक प्रख्यात साधु जिनका नाम जेनरेन था, उन्होंने हानक्वांग से उनके भारत के अनुभवों के बारे में पूछा। हानक्वांग ने उन्हें निम्न बातें बताईं:
वहां भारत के किसी क्षेत्र से एक साधु थे जो शून्यता की शिक्षा में बेहद निपुण थे। उन्होंने मुझ से झीझे की शिक्षाओं के बारे में पूछा। उन्होंने कहा: ‘मैंने एक बार ऐसा सुना कि झीझे की शिक्षा सही और गलत का पता लगा सकती है, साधारण और गोल का पता लगा सकती है, समता और विवेक को समझ सकते हैं, अपने बल पर।’ उन्होंने बार-बार विनंती कि, ‘यदि आपको भारत दोबारा आने का मौका मिलता है, कृपया करके झीझे के कामों को चीनी भाषा से संस्कृति में भाषांतर करे जिससे मैं उन्हें सीख सकूं।’ उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था और बार-बार याचना कर रहे थे।

मई 17, 2017: बीजिंग में भारतीय बुद्धधर्मी सांस्कृतिक धरोहर की फ़ोटो प्रदर्शनी में एक दर्शक। वीसीजी


पारंपरिक रूप से, वे चीनी लोग ही थे जिन्होंने भारत से बौद्ध धर्म सीखा। लेकिन जैसे समय बीता और चीन की परिस्थितियों को समझने के बाद, भारतीय साधुओं ने चीनी बौद्ध धर्म सीखने में उत्साह दिखाया। यह बेहद रोचक प्रगति मानते हैं। हालांकि, कुछ लोग इस कहानी की विश्वसनीयता पर शंका करते हैं, लेकिन पूरी कहानी अपने आप में ठोस है। जाननिंग, जिन्होंने सोंग राजवंश में बायोग्राफिज़ ऑफ एमिनेंट मॉन्क्सका संकलन किया, पुरानी कहानियों को याद करते हुए निम्नलिखित टिप्पणी की है:
यद्यपि बौद्ध धर्म चीन में प्रसारित और विकसित हो रहा था, क्या किसी ने सुना था कि बौद्ध धर्म पश्चिमी क्षेत्रों में लौट रहा था ? ऐसा कहा जाता है कि ल्यांग सम्राट वू, कुआलु खान, तुयूहुन के राजा ने ल्यांग में एक राजदूत भेजा और बुद्ध की मूर्ति, 14 बौद्ध सूत्र और अभिधर्म कार्य मांगे थे। सम्राट वू ने उन्हें परिनिर्वाण के सूत्र, प्रज्नापारमिता और सुवर्णप्रभा अपनी टिप्पणियां दीं जो कुल 103 पुस्तकें थीं। चूंकि राजदूत चीनी भाषा में निपुण थे, वापस जाने के बाद, उन्होंने उन लेखों को हु भाषाओं में भाषांतरित किया जिससे उन्हें लोग समझ सकें।
उनके साम्राज्य में बौद्ध संतों को भाषांतर और उन लेखों को दूसरे साम्राज्यों छिंगहाई से उत्तरी जनजातियों से पामीर तक फैलाने की जिम्मेदारी थी। बाद में, यही लेख निश्चित रूप से भारत पहुंचे। चेसी साम्राज्य में, आज का तुरफन, द सांग्स ऑफ माओ, अनलेक्ट्स ऑफ कन्फ़्यूशिय और क्लासिक ऑफ फिलियाल पेटी विद्यालयों में पढ़ाये जाते थे। चीनी लेखों के भाषांतर हु भाषाओं में पहले से उपलब्ध थे। और थांग युग के दौरान पश्चिमी क्षेत्रों के लोगों नेबुक ऑफ चेंजस और ताओडे जिंग को पूज्यनीय माना। सम्राट ने उन्हें बौद्ध धर्म मानने वालों और ताओइस्ट का एक जैसा ही संस्कृत में भाषांतर करने का आदेश दिया। बौद्ध धर्मियों और ताओइस्ट के बीच इस बात पर गहन चर्चा हुई कि क्या ताओडे जिंग को बोधी में भाषांतरित किया जा सकता है? अंततः इस प्रकल्प को बंद करना पड़ा। कितना अच्छा हुआ होता यदि इन गौरव ग्रंथों को भाषांतरित किया होता और पश्चिमी इलाकों में भेज दिया होता। यदि चीन के पश्चिमी क्षेत्रों को बौद्ध धर्म की जड़ और तना पसंद आया है, और तोंगश्या, पूर्वी चीन, उसकी शाखाओं और पत्तों की तरह है। जड़ें और तने की बजाय शाखाएं और पत्ते इंसानों को ज्यादा पता हैं, लेकिन जड़ और तना उगाने के लिए मिट्टी में शाखाएं और पत्ते नहीं लगाए जा सकते, जो निग्रोधा वृक्ष के साथ होता है। चीनी लोग फुर्तीले होते हैं। यह हम कैसे जानते हैं ? उन्हें चीजें संक्षिप्त में, कम शब्दों में और अधिक स्पष्ट पसंद हैं। पश्चिम क्षेत्र के लोग ईमानदार और साधारण हैं। यह हम कैसे जानते हैं? भारतीय लोग चीजों को उलझा हुआ, अधिक शब्दों में और अंतिम प्रबोधन में पसंद करते हैं।
निग्रोधा वृक्ष के तत्वों में “मिट्टी में लगायी गयी शाखाएं और पत्ते, शाखाओं और पत्तों से आने वाली जड़ और तना” हैं। जाननिंग ने बौद्ध धर्म और चीन की संस्कृति व भारत के रिश्तों को बताने के लिए निग्रोधा वृक्ष की जड़, शाखाओं और पत्तों का इस्तेमाल बतौर उपमा की। उन्होंने अंतरों की बहुत गंभीरता से चर्चा की। जाननिंग के शब्दों ने मुझे ह्वेन त्सांग के भारत में अनुभवों के बारे में सोचने को प्रेरित किया। भारत के महान विद्वानों से बौद्ध धर्म सीखने के मकसद से ह्वेन त्सांग भारत गए, लेकिन उसी दौरान उन्होंने ने भारत में धर्म और संस्कृति के विकास में बहुत बड़ा योगदान दिय। ह्वेन त्सांग ने नालंदा में शिलादित्य के योग कारभूमि के लेखों का अध्ययन किया। इसके अलावा,उन्होंने भारत में कहीं दूर और अधिक यात्रा की तथा गहरी ज्ञान अर्जित की। नालंदा में, ह्वेन त्सांग ने हुइजोंग लूं (डॉक्टरीन्स ऑफ टू स्कूल्स को जोड़ते हुए)और पो एजियन लूं (रेफूटींग द फॉलकैसी) को संस्कृति में लिखा। पहले लेख ने माध्यमिका और योगकार स्कूल ऑफ महायाना बुद्धिज़्म के जोड़ को दर्शाता है तथा इस विषय पर ह्वेन त्सांग के व्यक्तिगत विचारों की व्याख्या की, जबकि दूसरे ने महायाना के सिद्धांत के समर्थन में तर्क दिए और काफी हद तक भारतीय विद्वान साधुओं से प्रशंसा प्राप्त की। शिलादित्य (हर्षवर्धन), भारतीय राजा उस वक्त, ह्वेन त्सांग के नैतिक चरित्र और ज्ञान को लेकर उच्चतम सम्मान था। जब उन्होंने अपनी राजधानी कान्यकुब्ज (आज का कन्नौज) में विशाल सभा का आयोजन किया तो ह्वेन त्सांग को मुख्य वक्ताओं में आमंत्रित किया। उन्होंने 20 राजाओं और 4000 से अधिक बौद्ध भिक्षु पूरे भारत से और इसके जोड़ में दूसरे धर्म के दो हजार से भी अधिक अनुयायियों ने जमावड़े में भाग लिया। ह्वेन त्सांग ने तर्कों के साथ सभा में एक कागजात रखा जिसका अठारह दिनों तक कोई खंडन नहीं कर पाया। इसलिए महायाना बौद्धधर्म के साधुओं ने ह्वेन त्सांग “महादेवा” को संवारा। हिनयान विचारधारा के साधुओं ने ह्वेन त्सांग को “मोक्षदेवा” का नाम दिया। ह्वेन त्सांग एकमात्र चीनी साधु थे जो भारत गए और अपनी शिष्यवृत्ति के लिए “देवा” की उपाधि प्राप्त भारत और चीन के बीच दो सहस्त्राब्दियों से भी अधिक समय के परस्पर संबंधों के दौरान, “जड़ों” और “शाखाओं” के कई उदाहरण के साथ “शाखाओं” के “जड़ों” में बदलने के उदाहरणों के साथ ही साथ और उसके विपरीत के भी मिलते हैं। संस्कृत में, कुछ शब्द जैसे कि सिनी (शक्कर), सिनजा (स्टील), सिनपुत्र (नासपाती), सिनानी (पीच) सभी चीन से संबंधित हैं। जाननिंग की उपमा का इस्तेमाल करते हुए, भारत और चीन के बीच के सांस्कृतिक परस्पर संवाद को बड़े “निग्रोधा” वृक्ष के तौर पर बताया है, जिसमें जड़ें आर-पार जाती हुई, अत्यलंकृत पत्ते, और जीवन प्रसारित करती आज भी। दोनों चीनी और भारतीय लोग एक जैसे बड़े पेड़ के नीचे रह रहे हैं। चीन में, प्राचीन विद्वानों ने राज्यों के युद्धों के ठीक पहले (475-221 बीसी) विश्व शांति और सौहार्द पर काफी चर्चा हालांकि, उस वक्त लोगों को विश्व और उसके अवसरों के बारे में बेहद सीमित समझ थी। बाद में, चीन और भारत एक दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से संपर्क में आ गए। जहां तक चीनी नागरिकों की बात थी, दुनिया के कार्यक्षेत्र फैल गए, विशेष रूप से भारत के साथ अक्सर संपर्क को स्थापित किया जा चुका था। आधुनिक समय के पहले तक चीन और भारत साथ में शांतिपूर्वक अस्तित्व में रहे। दो हजार सालों तक, भारत और चीन ने निरंतर विवाद से दूरी बनाए रखी जिसकी वजह से कई क्षेत्रों में भारत और चीन के लोगों के बीच शांति और दोस्ती बतौर मुख्य विषय बना रहा। विश्व भर में शांति और सौहार्द होना दोनों देशों के लोगों का लक्ष्य रहा है। आज, शांति और अक्षोभ दुनिया भर में कई जगहों पर मिलना मुश्किल है। सभी जगह विसंगति और तनाव हैं। सौभाग्य से, एशिया में चीन और भारत के बीच पारंपरिक समान समझ वक्त के साथ मजबूत हुई है। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, दोस्ताना संपर्क, आपसी सीख और समान विकास की ज़रूरत है। आज, यदि भारत और चीन अपने मामलों को ठीक से संभाल सकते हैं, लगभग एक तिहाई दुनिया के मसले सही तरीके से संभाले जा सकते हैं। तो भारत और चीन के लोगों को और दुनिया भर के शांतिप्रिय लोगों को संयुक्त प्रयास करके इस तरह का उदाहरण पेश करने से क्या रोक रहा है? मुझे भरोसा है कि चीन और भारत में सभी दोस्त इस मुद्दे पर सर्वसम्मति अनुकूलता रखते हैं। इस नई शताब्दी में, चीन-भारत दोस्ती के इस ‘निग्रोधा’ वृक्ष को गहरी जड़ें और मोहक पत्ते विकसित करने दो। इस बड़े वृक्ष के नीचे, चीन और भारत एक साथ आ सकते हैं और विश्व शांति में ऐतिहासिक योगदान कर सकते हैं।

लेखक पिकिंग विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं।