वर्ष 2018 : भारतीय आर्थिक जोखिम व चुनौतियां

वर्ष 2017 संभवतः भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता पर आने के बाद देश के अर्थतंत्र के लिए सबसे गंभीर संकट का सामना करने वाला साल रहा। जबकि सिर्फ एक साल पहले, भारत को वैश्विक आर्थिक मंदी की पृष्ठभूमि में एक हाईलाइट माना जाता था। कारण यह है कि 2016 में भारत ने चीन को पछाड़ कर विश्व के सबसे तेज़ आर्थिक विकास होने वाली प्रमुख आर्थिक इकाई बन चुका था। लेकिन आर्थिक विकास की गति में कटौती और घरेलू विभिन्न खतरों की वजह से 2017 में भारत का आर्थिक विकास इतना अच्छा नहीं रहा। डांवाडोल और चुनौतियों से भरे 2017 के बाद 2018 में भारत कौन-से जोखिमों व चुनौतियों का सामना करता होगा?
कृत्रिम बुद्धि का हमला
कृत्रिम बुद्धि और स्वचालन प्रौद्योगिकी के तेज़ विकास से मशीन और सॉफ़्टवेयर मनुष्य की जगह लेकर सामान्य आईटी सहायक काम और दोहराव कार्य कर सकते हैं। जबकि ये काम पहले अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने भारत से आउटसोर्सिंग किया था। मशीन दोहराव, अनुरूप और कम कुशल कामों के लिए और सक्षम हैं। पहले ये काम करने वाले भारत के अनेक आईटी कर्मचारी संभवतः भारी चुनौतियों का सामना कर बेरोजगार बन जाएंगे।
इस प्रवृत्ति के मद्देनज़र कारोबार प्रतिस्पर्द्धा शक्ति को बरकरार रखने के लिए विवश होकर अपने कर्मचारियों के खर्चे का पुनः आंकलन कर प्रचलन के खर्चे को श्रेष्ठ बनाना पड़ता है। रिपोर्ट है कि भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के अनेक कारोबारों ने बड़े पैमाने वाले कर्मचारियों की छंटनी करनी शुरू की। उल्लेखनीय बात यह है कि अमेरिकी ट्रम्प सरकार द्वारा एच-आईबी वीज़ा को सीमित करने से भारतीय आईटी जगत को झटका लगा, जिससे भारतीय कंपनियों को और ज़्यादा कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ती है।
मैकिन्से की हालिया एक रिपोर्ट में कहा गया कि मौजूदा करीब 40 लाख भारतीय आईटी कर्मचारियों में आधे लोगों को कुछ सालों में हटाये जाने का जोखिम झेलेंगे। निसंदेह स्वचालन विकास से पैदा हुई बेरोजगार की समस्या विकसित देशों और विकासमान देशों में होती हैं। लेकिन भारत में स्थिति और ख़ास है। स्वचालन विकास और कृत्रिम बुद्धि के विकास से आया झटका और गंभीर होगा। भारतीय राष्ट्रीय सॉफ्ट वेयर एवं सेवा कंपनी संघ (नसकोम) के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय जीडीपी में 1.6 खरब अमेरिकी डॉलर मूल्य वाले भारतीय आईटी उद्योग का अनुपात 9.3 प्रतिशत जा पहुंचा है। लेकिन भारत के कुल 50 करोड़ श्रमिकों में आईटी कर्मचारियों की संख्या सिर्फ 37 लाख हैं। इस के बावजूद आईटी उद्योग अभी भी भारत के सब से बड़े रोजगार के प्लेटफार्मों में से एक माना जाता है। आख़िर एक बड़ी आईटी कंपनी में स्थिर नौकरी पाना अनेक भारतीयों की अभिलाषा ही है। यह इस का कारण है कि क्योंकि 2017 में भारतीय आईटी उद्योग ने 5.6 हजार से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी की थी और“बेरोजगार”भारतीय मीडिया का वार्षिक प्रमुख शब्द बन गया था।

तेल दाम के बढ़ने से चुनौती का आना
कच्चे तेल का बड़ा आयातित देश होने के नाते भारत को तेल के कम दाम से बड़ा लाभांश प्राप्त हुआ। कम तेल दाम ने न सिर्फ़ भारत की मुद्रास्फीती को रोका है, बल्कि भारत के वित्त व व्यापार पर भी सक्रिय असर डाला है। हालांकि हाल में समग्र अर्थतंत्र में भारत अपेक्षाकृत मजबूत स्थान पर रहा है, फिर भी तेल दाम के बढ़ने से भारत संभवतः भारी चुनौतियों का सामना करेगा। 2014 से 2015 के बीच तेल दाम के 50 प्रतिशत की कटौती से भारत को भारी व्यापार लाभांश मिला था। तेल दाम की गिरावट से भारत ने भत्ता खर्चे को कम करने और उच्च वित्तीय आमदनी पाने से देश के जीडीपी के करीब 0.9 प्रतिशत का लाभांश प्राप्त किया, जिसने कारगर रूप से देश के सार्वजनिक पूंजी को आगे बढ़ाया है।
अमेरिका आदि देशों के तेल भंडार में गिरावट, तेल निर्यातित देशों के उत्पादन में कटौती, अमेरिका के शेल तेल के उत्पादन में अनुमान से कम बढ़ाने और पश्चिम एशिया के भू-राजनीति संकट आदि कारणों से भविषय में कच्चे तेल का दाम संभवतः ऊंचे स्तर में बरकरार रहेगा। इसलिए 2018 में तेल दाम के बढ़ने से संभवतः बिलकुल विपरित असर लाएगा और आगामी कई ऋतुओं में भारत के आर्थिक पुनरुत्थान पर प्रभाव डालेगा। ऊंचा तेल दाम संभवतः भारत के आर्थिक विकास, मुद्रास्फीती, चालू खाता घाटा और वित्तीय घाटा पर असर पड़ेगा। उदाहरण ले, जापानी नोमुरा सिक्योरिटीज के आंकड़े बताते हैं कि तेल दाम में हरेक 10 अमेरिकी डॉलर बढ़ने से उपभोक्ता मूल्य की मुद्रास्फीती दर 0.6 से 0.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। आंकड़े यह अनुमान भी लगाते हैं कि इसी तरह का परिवर्तन भारत के आवर्ती व्यापार खाते पर देश के जीडीपी के करीब 0.4 प्रतिशत का कुप्रभाव पड़ेगा। तेल दाम की गिरावट से भारतीय सरकार ने चुपचाप खपत कर को उन्नत किया, लेकिन तेल दाम के निरंतर बढ़ने से भारत सरकार को खपत कर को कम कर दबाव को कम करना पड़ेगा।
कृषि में संकट
2017 में भारत में कई बार किसानों ने विरोध किया, जिनमें कुछ हिंसक मुठभेड़ में तब्दील की गईं। नीचा विकास, नीचा लाभांश और मुश्किल जीवन से पैदा हुए बड़े पैमाने वाला स्थानांतरण और उच्च आत्महत्या दर आदि समस्याओं ने यह साबित किया कि भारत के कृषि क्षेत्र में समस्याएं उभरी हैं।
इधर के सालों में भारत में कृषि की विकास दर स्थिर नहीं है। 2012 से 2013 तक भारत में कृषि विकास दर 1.5 प्रतिशत थी। यह संख्या 2013 से 2014 के बीच 5.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। जबकि 2014 से 2015 के बीच इस संख्या में 0.2 प्रतिशत की कटौती आयी। 2015 से 2016 के बीच यह संख्या फिर 0.7 प्रतिशत बनी। 2016 से 2017 के बीच विकास दर 4.9 प्रतिशत थी। इस विकास दर के बदलने की प्रवृत्ति से भारत के कृषि क्षेत्र में मौजूद संकट प्रतिबिंब है। आज आधे से ज्यादा भारतीय लोगों को कृषि से आमदनी प्राप्त करना पड़ती है। इसलिए कृषि संकट से उत्पन्न परिणाम भारत के लिए अति गंभीर है।
कृषि उत्पादन की अस्थिरता से कृषि प्रचलन की आय में गिरावट आयी है। इधर के सालों में भारत का कृषि संकट में रहा। एक ओर, कीट,महामारी रोग, बेहतर बीजों की कमी और कम सिंचाई आदि कारणों से भारत में कृषि उत्पादन दर नीची रही और खतरे का सामना करने की क्षमता भी कमजोर है। दूसरी ओर, बाज़ार की बुनियादी संरचना के अभाव से कृषि उद्योग के बिचौलिया व्यापारियों को भारी लाभांश मिला, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में वित्तीय संकट पैदा हुआ। और तो और उधारदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाला गैरकानूनी पूंजी माध्यम और अल्पकालिक और दीर्घकालिक पूंजी की कमी से भारतीय किसानों को स्थिर आमदनी और लाभांश का स्रोत मिल सकता है।
2017 में कृषि आर्थिक समस्या से उत्पन्न सामाजिक उथल-पुथल से गुजरात में भाजपा को 16 सीटें गंवानी पड़ी और भाजपा को कुल मिलाकर करीब 40 प्रतिशत सीटें मिली। चुनाव के बाद गुजरात में प्रतिरोध भावना को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार वहां की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश कर रही है। भारत के छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, राजस्थान सहित 8 बड़े ग्रामीण प्रदेश 2018 में प्रदेश स्तरीय चुनाव का आयोजन करेंगे। इसलिए ग्रामीण ऋण, कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या जैसी समस्याएं अवश्य ही लोगों का ज्यादा से ज्यादा ध्यान खींचेंगी। इसलिए यदि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार 2018 में इन कृषि संकट का हल नहीं कर सकती, तो कृषि समस्या भारत के अर्थतंत्र को क्षति पहुंचाएगी और अगले चुनाव में भाजपा द्वारा प्राप्त मतों पर भी असर पड़ सकता है।
राष्ट्रीय क्षमता उन्नत होने की आवश्यकता है
चूंकि “भारत आम तौर पर रात में बढ़ रहा है, क्योंकि सरकार इस समय सो रही है”, इस तरह के भाषण की विडंबना का वर्णन किया गया है। कुछ लोगों का मानना है कि भारत में आर्थिक युगांतर विकास अपने समाज व बाज़ार खुद की प्रेरणा शक्ति से आया है, देश से नहीं। श्रेष्ठ सार्वजनिक संस्था के समर्थन के बिना भारत द्वारा अनवरत परोपकार लाभांश, सुधरे वितरण के परिणाम और तेज़ आर्थिक विकास के लचीलापन और स्थायित्व सब का आधार नहीं रहेगा। भारत की सिस्टम की कमी से आए सामाजिक विश्वास संकट निरंतर उभरता रहा है। चाहे पुलिसकर्मी, अदालत, निरीक्षक या कर संस्थाएं अकसर कार्यान्वयन में विभिन्न समस्याएं पैदा हुई हैं।
भारत के लिए मौजूदा सबसे फौरी मिशन बुनियादी सुधार करना, देश की क्षमता को मज़बूत करना और कारगर प्रबंध प्रणाली की स्थापना करनी है। पहले के सिस्टम के आधार पर अनुमानित परिणाम नहीं मिल सकेगा। इस के विपरित भारत को मौजूदा सिस्टम की विफलता का और गहन रूप से समझकर तर्कसंगत विश्लेषण करना चाहिए।
मोदी सरकार के दृष्टिकोण से देश की क्षमता के उन्नत होने के लिए शक्तिशाली टीम को सुधार की नीति को अच्छी तरह समझना चाहिए, नीति के लागू होने की प्रक्रिया में कदम ब कदम राष्ट्रीय क्षमता को प्रगाढ़ करना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अनेक विद्वानों ने कहा कि बुनियादी राष्ट्रीय क्षमता के अभाव से हालांकि देखने में व्यापार की सुविधा सूचकांक में स्पष्ट उन्नति आयी है, फिर भी अधिकांश बड़ी कंपनियों के लिए हितकर है, जबकि मध्यम व छोटी कंपनियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं है। और एक मिसाल है, हालांकि मोदी सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की भ्रष्टाचार कार्यवाइयों में कटौती आयी है, फिर भी राष्ट्रीय क्षमता के अभाव से स्थानीय सरकारों की भ्रष्टाचार स्थितियों में अभी भी सुधार नहीं हो पाया है।
गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां सबसे बड़ी समस्या
गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों की समस्या संभवतः भारत के सामने आयी सब से बड़ी आर्थिक समस्या है। पिछले कुछ वर्षों में, गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों की समस्या ने भारत को लगातार प्लेग की तरह पीड़ित किया है। अब भारत सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और सत्ताधारियों ने इस समस्या की महत्वता और फौरी का पता लगाया है। हाल के वर्षों में, गैर-निष्पादित संपत्तियां भारत में निजी निवेश के विकास में गंभीरता से बाधा डाल रही हैं। अगले कुछ वर्षों में, यह मांग वृद्धि और रोजगार वृद्धि को भी रोक सकती हैं।
2017 में भारतीय सरकार के ज्यादातर सिरदर्द बात है कि गहराई से बुरे ऋणों में फंसे राष्ट्रीय बैंक सिस्टम। यदि 90 दिनों से अधिक समय के लिए अतिदेय ऋण को “बुरा ऋण” के रूप में परिभाषित किया जाता है, तो भारत के 21 राष्ट्रीय बैंकों में 17 बैंकों में बुरा ऋण दर 10 प्रतिशत से ज्यादा होती है। जबकि अनेक बुरे ऋण का स्रोत संकट में फंसे औद्योगिक विभाग हैं। 2009 से सरकार ने 15 खरब रूपये की पूंजी देकर बैंकों के प्रचलन का समर्थन किया। लेकिन सरकार को और कई अरबों रूपये की पूंजी देने की आवश्यकता है। भारत सरकार के पास इतने ज्यादा पैसे नहीं हैं, फिर भी वह सार्वजनिक बैंकों के नीजिकरण या बंद करना नहीं देखना चाहती है। बुरे ऋण का एक बड़ा असर है कि सार्वजनिक बैंक पूंजी को औद्योगिक विभागों को धन उधार नहीं देना चाहते हैं। खराब पूंजी दर बढ़ती रहती, क्रेडिट वृद्धि धीमी रही, सार्वजनिक बैंकों का पुनःगठन किये जाने की आवश्यकता है।
2017 में भारत सरकार ने आर्थिक विकास की बहाली के लिए दो कदम उठाये। पहला, समृद्धि शेयर बाजार में वित्तपोषण पाना। दूसरा, उद्योग विभाग की राष्ट्रीय संपत्तियों को बेचने से पूंजी इकट्ठा करना है। एक बार बेची गई संपत्ति से विशेष बोनस प्राप्त हो जाने के बाद, सरकार बैंक की बैलेंस शीट को समाप्त करने और अपनी संपत्तियों को पुन: स्थापित करने के लिए धन का उपयोग करेगी। एक्सचेंज रेट, प्रिंट मनी और माइक्रोमैप्यूलेशन को समायोजित करने के बजाय यह आर्थिक विकास को बहाल करने का शायद “साफ़” तरीका है
लेखक माओ खची थिंक टैंक के भारतीय अनुसंधान केंद्र के अनुसंधानकर्ता हैं।